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सत्तरहवाँ शतक : उद्देशक - १
२४. एवं वेडव्वियसरीरेण वि दो दंडगा. नवरं जस्स अत्थि वेउव्वियं ।
[२४] इसी प्रकार वैक्रियशरीर (निष्पन्नकर्ता) के विषय में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो दण्डक कहने चाहिए। किन्तु उन्हीं के विषय में कहना चाहिए, जिन जीवों के वैक्रिय- शरीर होता है।
२५. एवं जाव कम्मगसरीरं ।
[२५] इसी प्रकार (आहारक शरीर, तैजसशरीर) यावत् कार्मणशरीर तक कहना चाहिए।
२६. एवं सोतिंदियं जाव फासिंदियं ।
[२६] इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय से ( लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक ( के निष्पन्नकर्ता के विषय में) कहना चाहिए ।
२७. एवं मणजोगं, वइज़ोगं, कायजोगं, जस्स जं अत्थि तं भाणियव्वं । एते एगत्ते-पुहत्तेणं छव्वीसं दंडगा ।
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[२७] इसी प्रकार मनोयोग, वचनयोग और काययोग के (निष्पन्नकर्ता के) विषय में जिसके जो हो, उसके लिए उस विषय में कहना चाहिए। ये सभी मिल कर एकवचन बहुवचन - सम्बन्धी छव्वीस दण्डक होते हैं ।
विवेचन — प्रस्तुत सूत्रों (सू. १५ से २५ तक) में शरीर, इन्द्रिय और योग, इनके प्रकार तथा इनमें से प्रत्येक को निष्पन्न करने वाले जीव को एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है।
षड्विध भावों का अनुयोगद्वार के अतिदेशपूर्वक निरूपण
२८. कतिविधे णं भंते ! भावे पन्नत्ते ?
गोयमा ! छव्विहे भावे पन्नत्ते, तं जहा — उदइए उवसमिए जाव सन्निवातिए ।
[ २८ प्र.] भगवन् ! भाव कितने प्रकार के कहे गए हैं ?
[ २८ उ.] गौतम ! भाव छह प्रकार के कहे गए हैं यथा— औदयिक, औपशमिक यावत् सान्निपातिक ।
२९. से किं तं उदइए भावे ? उदइए भावे दुविहे पन्नंत्ते, तं जहा — उदइए य उदयनिप्फन्ने य । एवं एतेणं अभिलावेणं जहा अणुओगद्दारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव से त्तं सन्निवातिए भावे । सेवं भंते! सेव भंते! ति० ।
॥ सत्तरसमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ १७-१॥
१. वियाहपण्णत्तिसुत्त, भा. २ ( मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ७७५-७७६