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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
विवेचन — रत्नप्रभापृथ्वी के चरमान्तों से सम्बन्धित व्याख्या - लोक के चार चरमान्तों के समान रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों का कथन करना चाहिए। रत्नप्रभापृथ्वी के उपरितन चरमान्त के विषय में दशवें शतक के प्रथम उद्देशक में उक्त विमला दिशा की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए। यथा—वहाँ कोई जीव नहीं है, क्योंकि वह एक प्रदेश के प्रतररूप होने से उसमें जीव नहीं समा सकते परन्तु जीवदेश और जीवप्रदेश रह सकते हैं। उसमें जो जीव के देश हैं वे अवश्य ही एकेन्द्रिय जीव के देश होते हैं । अथवा (१) एकेन्द्रिय के बहुत देश और द्वीन्द्रिय का एक देश, (२) अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश और द्वीन्द्रिय के बहुत देश अथवा (३) केन्द्र के बहुत देश और द्वीन्द्रियों के बहुत देश; यों तीन भंग होते हैं। क्योंकि रत्नप्रभा में द्वीन्द्रिय होते हैं और वे एकेन्द्रियों की अपेक्षा थोड़े होते हैं, इसलिए इसके उपरितन चरमान्त में द्वीन्द्रिय का एक देश अथवा बहुत देश सम्भवित हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक प्रत्येक के तीन-तीन भंग जीवदेश की अपेक्षा से कहने चाहिए। वहाँ जो जीव के प्रदेश हैं, वे अवश्य ही एकेन्द्रिय के हैं, इसलिए—– (१) एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश और द्वीन्द्रिय के बहुत प्रदेश हैं । (२) अथवा एकेन्द्रिय जीव के बहुत प्रदेश और द्वीन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं। इस प्रकार त्रीन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक के भी दो-दो भंग जानने चाहिए।
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वहाँ रूपी अजीव के ४ और अरूपी अजीव के ७ भेद होते हैं, क्योंकि समयक्षेत्र के अन्दर होने से वहाँ अद्धा समय (काल) भी होता है।
रत्नप्रभा के चरमान्ताश्रयी देश विषयक भंगों में अंसयोगी एक और द्विकसंयोगी पन्द्रह, यों कुल सोलह भंग होते हैं। प्रदेशापेक्षया असंयोगी एक और द्विकसंयोगी दस, ये कुल ग्यारह भंग होते हैं ।
रत्नप्रभा के अधस्तन चरमान्त का कथन लोक के अधस्तन चरमान्तवत् करना चाहिए। विशेषता यह है कि लोक के नीचे के चरमान्त में जीवदेश सम्बन्धी दो-दो भंग द्वीन्द्रिय आदि के मध्यम भंग को छोड़ कर कहे गए हैं, परन्तु यहाँ पंचेन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त में देवरूप पंचेन्द्रिय जीवों के गमनागमन से पंचेन्द्रिय का एक देश और पंचेन्द्रिय के बहुत देश सम्भवित होते हैं । इसलिए यहाँ पंचेन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिए। द्वीन्द्रिय आदि तो रत्नप्रभा के निचले चरमान्त में मरण - समुद्घात से जाते हैं। तभी उनका वहाँ सम्भव होने से वहाँ उनका एक देश ही सम्भवित है, बहुत देश सम्भवित नहीं, क्योंकि रत्नप्रभा के अधस्तन चरमान्त का प्रमाण एक प्रतररूप है, इसलिए वहाँ बहुत देशों का समावेश हो नहीं सकता।
शर्करादि छह नरकों से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक के चरमान्तों का कथन – इनके पूर्वादि चार चरमान्तों का कथन रत्नप्रभा के पूर्वादि चार चरमान्तों के समान करना चाहिए ।
जिस प्रकार रत्नप्रभा के नीचे का चरमान्त कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभादि छह नरकों से लेकर अच्युतकल्प तक के ऊपर-नीचे के चरमान्त-सम्बन्धी जीवदेश - आश्रयी असंयोगी एक, द्विकसंयोगी ग्यारह, यों कुल १२ भंग होते हैं तथा प्रदेश की अपेक्षा से असंयोगी एक और द्विकसंयोगी दस, यों कुल ग्यारह - ग्यारह भंग होते हैं । अर्थात् — शर्कराप्रभा का उपरितन एवं अधस्तन चरमान्त रत्नप्रभा के अधस्तन चरमान्त के समान जानना चाहिए । यहाँ द्वीन्द्रिय आदि के दो-दो भंग जीवदेश की अपेक्षा मध्यम भंगरहित होते हैं तथा पंचेन्द्रिय के तीन
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