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सोलहवाँ शतक : उद्देशक-८
५९७ भंग होते हैं। जीवप्रदेश की अपेक्षा द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी के प्रथमभंगरहित शेष दो-दो भंग होते हैं। अजीव-आश्रयी रूपी अजीव के ४ और अरूपी अजीव के६ भेद होते हैं। शर्कराप्रभा के समान शेष सभी नरकपृथ्वियों की तथा सौधर्म से लेकर ईषत्प्राग्भारा तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेषता यह है कि जीवदेश की अपेक्षा से अच्युतकल्प तक देवों का गमनागमन सम्भव होने से (वहाँ तक) पंचेन्द्रिय के तीन भंग और द्वीन्द्रिय आदि के दो-दो भंग होते हैं। नौ ग्रैवेयक तथा अनुत्तर विमानों में तथा ईषत्प्राग्भारापृथ्वी में देवों का गमनागमन न होने से पंचेन्द्रिय के भी दो-दो भंग कहने चाहिए।'
कठिन शब्दार्थ-केमहालए कितना बड़ा। आइल्ल—आदि (पहले) का। अद्धासमयोकाल। पुरच्छिमिल्ले-पूर्व दिशा का। हेट्ठिल्ले-नीचे का, अधस्तन । दाहिणिल्ले—दक्षिण दिशा का। उवरिल्ले—उपरितन, ऊपर का। मझिल्लविरहिओ-मध्यम भंग से रहित। परमाणु की एक समय में लोक के पूर्व-पश्चिमादि चरमान्त तक गति-सामर्थ्य
१३. परमाणुपोग्गले णं भंते। लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ पच्चथिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, पच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरथिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं जाव गच्छति, उत्तरिल्लाओ० दाहिणिल्लं जाव गच्छति, उवरिल्लाओ चरमंताओ हेट्ठिल्लं चरिमंतं एग. जाव गच्छति, हेट्ठिल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ?
हंता, गोयमा ! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरथिमिल्ल. तं चेव जाव उवरिल्लं चरिमंतं गच्छति।
[१३ प्र.] भगवन् ! क्या परमाणु-पुद्गल एक समय में लोक के पूर्वीय चरमान्त से पश्चिमीय चरमान्त में, पश्चिमीय चरमान्त से पूर्वीय चरमान्त में, दक्षिणी चरमान्त से उत्तरीय चरमान्त में, उत्तरीय चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त में, ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त में और नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त में जाता है?
_ [१३ उ.] हाँ गौतम! परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्वीय चरमान्त से पश्चिमीय चरमान्त में यावत् नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त में जाता है।
विवेचन–परमाणु पुद्गल एक समय में सभी चरमान्तों तक इधर से उधर गति कर सकता है, यह तथ्य प्रस्तुत किया गया है। वष्टिनिर्णयार्थ करादि संकोचन-प्रसारण में लगने वाली क्रियाएँ
१४. पुरिसे णं भंते! वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वा वाहु ऊरुं वा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे वा कतिकिरिए ? १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७१५, ७१६, ७१७
(ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५, पृ. २५८२ २. वही, भा. ५, पृ. २५७५