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सोलहवां शतक : उद्देशक-८
५९५ गोयमा ! नो जीवा, एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारि वि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले उवरिल्ले जहा दसमसए विमला दिसा (स. १० उ. १ सु. १६) तहेव निरवसेसं। हेट्ठिल्ले चरिमंते जहेव लोगस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते (सु. ६) तहेव, नवरं देसे पंचेंदिएसु तियभंगो, सेसं तं चेव।
[७ प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वीय चरमान्त में जीव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न।
[७ उ.] गौतम! वहाँ जीव नहीं हैं। जिस प्रकार लोक के चार चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के चार चरमान्तों के विषय में यावत् उत्तरीय चरमान्त तक कहना चाहिए। रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त के विषय में, दसवें शतक (उ. १ सू. १६) में (उक्त) विमला दिशा की वक्तव्यता के समान सम्पूर्ण कहना चाहिए। रत्नप्रभापृथ्वी के अधस्तन चरमान्त की वक्तव्यता लोक के अधस्तन चरमान्त के समान कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि जीवदेश के विषय में पंचेन्द्रियों के तीन भंग कहने चाहिए। शेष सभी कथन उसी प्रकार करना चाहिए।
८. एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सक्करप्पभाए वि। उवरिमहेट्ठिल्ला जहा रयणप्पभाए हेट्ठिल्ले।
. [८] जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के चार चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी के भी चार चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए तथा रत्नप्रभापृथ्वी के अधस्तन चरमान्त के समान, शर्कराप्रभापृथ्वी के उपरितन एवं अधस्तन चरमान्त की वक्तव्यता कहनी चाहिए।
९. एवं जाव अहेसत्तमाए। [९] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। १०. एवं सोहम्मस्स वि जाव अच्चुयस्स।
[१०] इसी प्रकार सौधर्मदेवलोक से लेकर अच्युतदेवलोक तक (के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए।)
११. गेविजविमाणाणं एवं चेव। नवरं उवरिम-हेट्ठिल्लेसु चरिमंतेसु देसेसु पंचेंदियाण वि मज्झिल्लविरहितो चेव, सेसं तहेव।
[११] ग्रैवेयकविमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें उपरितन और अधस्तन चरमान्तों के विषय में, जीवदेशों के सम्बन्ध में पंचेन्द्रियों में भी बीच का भंग नहीं कहना चाहिए। शेष सभी कथन पूर्ववत् करना चाहिए।
१२. एवं जहा गेवेज्जविमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिपब्भारा वि।
[१२] जिस प्रकार ग्रैवेयकों के चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार अनुत्तरविमानों तथा ईषत्प्रारभारापृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए।