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सोलहवां शतक : उद्देशक-६
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गन्ध के पुद्गल बहते हैं
३६. अहं भंते! कोट्ठपुडाण वा जाव' केयतिपुडाण वा अणुवायंसि उब्भिजमाणाण वा जाव' ठाणाओ वा ठाणं संकामिज्जमाणाणं किं कोटे वाति जाव केयती वाति ?
गोयमा ! नो कोठे वाति जाव नो केयती वाति घाणसहगया पोग्गला वांति। सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति।
॥सोलसमे सए छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥१६-६॥ [३६ प्र.] भगवन् ! कोई व्यक्ति यदि कोष्ठपुटों (सुगन्धित द्रव्य के पुड़े) यावत् केतकीपुटों को खोले हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेकर जाता हो और अनुकूल हवा चलती हो तो क्या उसका गन्ध बहता (फैलता) है अथवा कोष्ठपुट यावत् केतकीपुट वायु में बहता है ?
__ [३६ उ.] गौतम ! कोष्ठपुट यावत् केतकीपुट नहीं बहते, किन्तु घ्राण-सहगामी गन्ध-गुणोपेत पुद्गल बहते हैं। . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं।
विवेचन कोष्ठपुट आदि बहते हैं या गन्ध-पुद्गल ?—प्रस्तुत सूत्र में भगवान् ने यह निर्णय दिया है, कोष्ठपुट आदि सुगन्धित द्रव्य को खोलकर अनुकूल हवा की दिशा में ले जाया जा रहा हो तो कोष्ठपुट आदि नहीं बहते, किन्तु कोष्ठपुट आदि की सुगन्ध के पुद्गल हवा में फैलते (बहते) हैं, और वे घ्राणग्राह्य होते हैं।
कठिन शब्दार्थ—कोटपुडाण–वाससमूह जिस (कोष्ठ) में पकाया जाता हो, वह कोष्ठ कहलाता है। कोष्ठ के पुट अर्थात् पुड़ों को कोष्ठपुट कहते हैं।' ॥सोलहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त॥
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१. 'जाव' पद सूचक पाठ—'पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वा' इत्यादि। २. 'जाव' पद सूचक पाठ—'निभिज्जमाणाण वा, उक्किरिज्जमाणाण वा विक्किरिजमाणाण वा' इत्यादि।
-भगवती अ. वृ. पत्र ७१३ ३. वियाहपण्णत्ति भा. २, (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. ७६६-७६७ ४. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७१३