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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
सन्तुष्ट हुआ। उसने स्नान और बलिकर्म किया, यावत् शरीर को अलंकृत करके वह अपने घर से निकला और पैदल चल कर हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ सहस्राम्रवन उद्यान में जहाँ अर्हत् भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचा। तीर्थकर मुनिसुव्रत प्रभु को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना विधि से पर्युपासना करने लगा।
तत्पश्चात् अर्हन्त मुनिसुव्रतस्वामी ने गंगदत्त गाथापति को और उस महती परिषद् को धर्मकथा कही । धर्मकथा सुनकर यावत् परिषद् लौट गई।
तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुनकर और अवधारण करके गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट होकर खड़ा हुआ और भगवान् को वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार बोला- 'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् आपने जो कुछ कहा, उस पर श्रद्धा करता हूँ । देवानुप्रिय ! विशेष बात यह है कि मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दूंगा, फिर आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित यावत् प्रव्रजित होना चाहता हूँ।' (श्री मुनिसुव्रतस्वामी ने कहा— ) हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब मत करो ।
अर्हत् मुनिसुव्रतस्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वह गंगदत्त गाथापति हृष्ट-तुष्ट हुआ सहस्राम्रवन उद्यान से निकला, और हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था, वहाँ आया। घर आकर उसने विपुल अशन-पान यावत् तैयार करवाया। फिर अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि को आमंत्रित किया। उसके पश्चात् उसने स्नान किया। फिर (तीसरे शतक के दूसरे उद्देशक सू. १९ में कथित ) पूरण सेठ के समान अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब ( - कार्य) में स्थापित किया।
तत्पश्चात् अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि तथा ज्येष्ठ पुत्र से अनुमति ले कर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका (पालखी) पर चढ़ा और अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार एवं ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ, सर्वऋद्धि (ठाठबाठ) के साथ यावत् वाद्यों के आघोषपूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में हो कर सहस्राम्रवन उद्यान के निकट आया । छत्र आदि तीर्थंकर भगवान् के अतिशय देख कर यावत् (तेरहवें शतक के छठे उद्देशक सू. ३१ में कथित ) उदायन राजा के समान यावत् स्वयमेव आभूषण उतारे; फिर स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया। इसके पश्चात् तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी के पास जाकर (१३वें शतक, छठे उद्देशक सू. ३१ में कथित) उदायन राजा के समान प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत उसी के समान (गंगदत्त अनगार ने) ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् एक मास की संलेखना से साठ - भक्त अनशन का छेदन किया और फिर आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त हो कर काल के अवसर में काल करके महाशुक्रकल्प में महासामान्य नामक विमान की उपपातसभा की देवशय्या में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उत्पन्न हुआ ।
तत्पश्चात् सद्योजात ( तत्काल उत्पन्न ) वह गंगदत्त देव पंचविध पर्याप्तियों से पर्याप्त बना । यथा— आहारपर्याप्ति यावत् भाषा - मन:- पर्याप्ति ।
इस प्रकार हे गौतम! गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव ऋद्धि यावत् पूर्वोक्त प्रकार से उपलब्ध, प्राप्त यावत् अभिमुख की है।