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________________ ५६४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ “से जहा वा केयि पुरिसे सक्कं तणहत्थगं जायतेयंसि पक्खिवेजा एवं जहा छट्ठसए ( स. ६ उ. १ सु. ४) तहा अयोकवल्ले वि जाव महापज्जवसाणा भवंति। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जावतियं अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेइ. तं चेव जाव वासकोडाकोडी वा नो खवयंति।" सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ। ॥ सोलसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥१६-४॥ __ [७ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म नरकों में नैरयिक, एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में नहीं खपा पाता, तथा चतुर्थभक्त करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, ...... इत्यादि पूर्वकथित वक्तव्य का कथन, कोटाकोटी वर्षों में क्षय नहीं कर सकता। (यहाँ तक करना चाहिए)। - [७ उ.] गौतम ! जैसे कोई वृद्ध पुरुष है। वृद्धावस्था के कारण उसका शरीर जर्जरित हो गया है। चमड़ी शिथिल होने से सिकुड़ कर सलवटों (झुर्रियों) से व्याप्त है। दांतों की पंक्ति में बहुत से दांत गिर जाने से थोड़े से (विरल) दांत रह गए हैं, जो गर्मी से व्याकुल है, प्यास से पीडित है, जो आतुर (रोगी), भूखा, प्यासा, दुर्बल और क्लान्त (थका हुआ या परेशान) है। वह वृद्ध पुरुष एक बड़ी कोशम्बवृक्ष की सूखी, टेढी-मेढ़ी, गाँठगठीली, चिकनी, बांकी, निराधार रही हुई गण्डिका (गाँठगठीली जड़) पर एक कुंठित (भोंथरे) कुल्हाड़े से जोर-जोर से शब्द करता हुआ प्रहार करे, तो भी वह उस लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़े नहीं कर सकता, इसी प्रकार है गौतम ! नैरयिक जीवों ने अपने पाप कर्म गाढ़ किये हैं, चिकने किये हैं, इत्यादि छठे शतक (उ. १ सू. ४) के अनुसार यावत्-वे महापर्यवसान (मोक्ष रूप फल) वाले नहीं होते। (यहाँ तक कहना चाहिए।) (इस कारण वे नैरयिक जीव अत्यन्त घोर वेदना वेदते हुए भी महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले नहीं होते।) जिस प्रकार कोई पुरुष एहरन पर घन की चोट मारता हुआ, जोर-जोर से शब्द करता हुआ, (एहरन के स्थूल पुद्गलों को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार नैरयिक जीव भी गाढ़ कर्म वाले होते हैं) इसलिए वे यावत् महापर्यवसान वाले नहीं होते। जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण है, बलवान् है, यावत् मेधावी, निपुण और शिल्पकार है, वह एक बड़े शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठिल (गांठ रहित), चिकनाई से रहित, सीधी और आधार पर टिकी गण्डिका पर तीक्ष्ण कुल्हाड़े से प्रहार करे तो जोर-जोर से शब्द किये बिना ही आसानी से उसके ड़े टुकड़े कर देता है। इसी प्रकार हे गौतम ! जिन श्रमण निर्ग्रन्थों ने अपने कर्म यथा स्थूल, शिथिल यावत् निष्ठित किये हैं, यावत् वे कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। और वे श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् महापर्यवसान वाले होते हैं। हे गौतम ! जैसे कोई परुष सखे हए घास के पले को यावत अग्नि में डाले तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे कोई पुरुष, पानी की बून्द को तपाये हुए लोहे के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के भी यथाबादर (स्थूल) कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। छठे शतक के (प्रथम
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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