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सोलहवां शतक : उद्देशक-४ ।
५६५ उद्देशक सू. ४) के अनुसार यावत् वे महापर्यवसान वाले होते हैं। इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, इत्यादि यावत् उतने कर्मों का नैरयिक जीव कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर पाते।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन—प्रस्तुत सात सूत्रों (१ से ७ तक) में दीर्घकाल तक घोर कष्ट में पड़ा हुआ नारक लाखोंकरोडों वर्षों में भी उतने कर्मों का लक्ष्य नहीं कर पाता. जितने कर्मों का क्षय तपस्वी श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पकाल में और अल्पकष्ट से कर देता है, इस तथ्य को भगवान् ने वृद्ध और तरुण पुरुष के, तथा घास के पूले और पानी की बूंदों का दृष्टान्त देकर युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है। इसका विस्तृत वर्णन छठे शतक के प्रथम उद्देशक में कर दिया गया
__ अण्णगिलायए-अन्नग्लायक : दो विशेषार्थ—(१) अन्न के बिना ग्लानि को पाने वाला। इसका आशय यह है कि जो भूख से इतना आतुर हो जाता है कि गृहस्थों के घर में रसोई बन जाए, तब तक भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता, ऐसा भूख सहने में असमर्थ साधु कूरगडूक मुनि की तरह, गृहस्थों के घर से पहले दिन का बना हुआ बासी कूरादि (अन्न या पके हुए चावल) ला कर प्रात:काल ही खाता है, वह अन्नग्लायक है। (२) चूर्णिकार के मतानुसार—भोजन के प्रति इतना नि:स्पृह है कि जैसा भी अन्त, प्रान्त, ठंडा, बासी अन्न मिले उसे निगल जाता है, वह अनगिलायक है।
कठिन शब्दार्थ - जावतियं जितने। एवतियं—इतने। जुण्णे—जीर्ण—वृद्ध ।जराजजरियदेहेबुढ़ापे से जर्जरित देह वाला। सिढिल-तयावलितरंग-संपिणद्धगत्ते-शिथिल होने के कारण जिसकी चमड़ी (त्वचा) में सलवटें (झुर्रियां) पड़ गई हों, ऐसे शरीर वाला। पविरल-परिसडिय दंतसेढी—जिसके कई दांत गिर जाने से बहुत थोड़े (विरल) दांत रहे हों। उण्हाभिहए-उष्णता से पीड़ित। तण्हाभिहए—प्यास से पीड़ित । आउरे-रोगी। झुझिए—बुभुक्षित-क्षुधातुर।पिवासिए—पिपासित।किलंते-क्लान्त । कोसंबगंडियं—कोशम्ब वृक्ष की लकड़ी। जडिलं-मुड़ी हुई। गंठिल्लं-गांठ वाली। वाइद्धं व्यादिग्धवक्र। अपत्तियं—जिसको आधार न हो। अक्कमेज्जा–प्रहार करे। परसुणा—कुल्हाड़े से। महंताईबड़े-बड़े। दलाई अवद्दालेति–टुकड़े कर देता है। महापज्जवसाणा-मोक्ष रूप फल वाला। सुक्कं तणहत्थगं—सूखे घास के पूले को। जायतेयंसि—अग्नि में। परिविद्धत्थाई-परिविध्वस्त-नष्ट। निउणसिप्पोवगए—निपुण शिल्पकार । मुंडो-भोंथरा। ॥सोलहवां शतक : चौथा उद्देशक समाप्त॥
००० १. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ पृ. ७५३-७५४
(ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) खंड २ श. ६ उ.१ सू. ४ २. अन्नं विना ग्लायति-ग्लानो भवतीति अन्नग्लायकः, चूर्णिकारेण तु निःस्पृहत्वात् सीयकूरभोई अंतपंताहारो।
—अ. वृत्ति, पत्र ७०५ ३. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र ७०५ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५३४