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सोलहवां शतक : उद्देशक-३ उद्देशक में कहा गया है बह प्रज्ञाफ्ना का २६ वां पद वेद-बन्ध उद्देशक है।
बन्ध-वेद—एक कर्मप्रकृति को बांधता हुआ जीव, कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदता है, यह प्रेज्ञापना का २५ वाँ पद बंध-वेद उद्देशक है।
बन्ध-बन्ध—एक कर्मप्रकृति को बांधता हुआ जीव दूसरी कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है, यह जिसमें बताया गया है. वह प्रजापनासत्र का २४ वाँ पद बन्ध-बन्ध उद्देशक है।
प्रज्ञापना के अनुसार उत्तर-(१) प्रस्तुत पाठ में एक कर्मप्रकृति को वेदते समय आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है, यह औधिक रूप से उत्तर है। उसका आशय यह है कि सामान्यतया जीव आठों कर्मप्रकृतियों को वेदता है। किन्तु जब मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम हो जाता है, तब सात (मोहनीय के सिवाय) कर्मप्रकृतियों को वेदता है, और चार घातिकर्म क्षय होने पर शेष चार अघाति कर्मप्रकृतियों को वेदता है। (२) वेद-बन्ध पद के अनुसार ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीव सात, आठ, छह या एक कर्मप्रकृति का बन्ध करता है। जब आयुष्यकर्म का बन्ध करता है, तब आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, जब आयुष्यबन्ध नहीं करता तब सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में आयुष्य और मोहनीय के सिवाय छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। उपशान्तमोहादिदो गुणस्थानों में केवल एक वेदनीयकर्म को बांधता है। (३) बन्ध-वेद पद के अनुसार--ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ जीव, अवश्य ही आठ कर्मों को वेदता है, इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए।(४) बन्ध-बन्ध पद के अनुसार-ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता हुआ जीव सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों को बांधता है।आयुष्य नहीं बांधता तब सात, आयुष्य सहित आठ और मोहनीय तथा आयुष्य के बिना ६ कर्मप्रकृतियों को बांधता है, इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए।
मूल पाठ में 'वेयावेओ' आदि पदों में प्राकृभाषा के कारण दीर्घ हो गया है। कायोत्सर्गस्थ अनगार के अर्श-छेदक को तथा अनगार को लगने वाली क्रिया
५. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० २ बहिया जणवयविहार विहरति।
(५) किसी समय एक दिन श्रमण भगवान् महावीर राजगृहनगर के गुणशीलक नामक उद्यान से निकले और बाहर के (अन्य) जनपदों में विहार करने लगे।
६. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नामं नगरे होत्था। वण्णओ।
(६) उस काल उस समय में उल्लूकतीर नाम का नगर था। उसका वर्णन नगरवर्णनवत् जान लेना चाहिए।
१. पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण) श्रीमहावीर जैन विद्यालय
सू. १७८७-९२, सू. १७७५-८६, सूत्र १७६९-७४, सू. १७५४-६८, पृ. ३९१, ३८९, ३८८, ३८५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७०३