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सोलहवां शतक : उद्देशक-२
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आतंक (रोग) रूप से संकल्प (भयादि विकल्प) रूप से और मरणान्त (उपघातादि) रूप से अर्थात् रोगादिजनक असातावेदनीय रूप से परिणत होते हैं और वे वध के हेतुभूत होते हैं । वध जीव का होता है। अतः वध के हेतुभूत असातावेदनीय कर्मपुद्गल भी जीवकृत हैं इस दृष्टि से कहा गया है कि कर्म चेतनकृत होते हैं, १ अचेतनकृत नहीं होते हैं।
__ कठिन शब्दार्थ-चेयकडा-चेतःकृत-चेतन कृत यानी बद्ध चेतःकृत कर्म। कन्जंति-होते हैं। बोंदिचिया–बोंदि अव्यक्तावयव रूप शरीर रूप से संचित । नत्थि अचेयकडा—अचेतनकृत नहीं।
॥ सोलहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
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१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७०२
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २५२६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७०२