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________________ ५५६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र णं ते पोन्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समण उसो! दुट्ठाणेसु दुसेज्जासु दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! आयंके से वहाए होति, संकप्पे से वहाए होति, मरणंते से वहाए होति, तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! से तेणढेणं जाव कम्मा कजंति। । [१७-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं, अचेतनकृत नहीं होते [१७-२ उ.] गौतम! जीवों के आहार रूप से उपचित जो पुद्गल हैं, शरीररूप से जो संचित पुद्गल हैं और कलेवर रूप से जो उपचित पुद्गल हैं, वे तथा-तथा रूप से परिणत होते हैं, इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। वे पुद्गल दुःस्थान रूप से, दुःशय्या रूप से और दुर्निषद्या रूप से तथा-तथा रूप से परिणत होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। __वे पुद्गल आतंक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं, वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं, वे पुद्गल मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। है गौतम ! इसीलिए कहा जाता है, यावत् कर्म चेतनकृत होते हैं। १८. एवं नेरतियाण वि। [१९] इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म भी चेतनकृत होते हैं। १९. एवं जाव वेमाणियाणं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति। ॥सोलसमे सए : बीओ उद्देसओ सम्मत्तो॥१६-२॥ [१९] इसी प्रकार वैमानिकों तक के कर्मों के विषय में कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन कर्मों का कर्ता : चेतन है, अचेतन नहीं—प्रस्तुत तीन सूत्रों से स्पष्टतः युक्ति एवं तर्क पूर्वक बता दिया गया है कि सामान्य जीवों के या नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के कर्म चेतन (जीव) के द्वारा स्वकृत होते हैं, अचेतनकृत नहीं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार जीवों के आहार, शरीर, कलेवर आदि रूप से संचित किये हुए पुद्गल आहारादि-रूप से परिणत हो जाते हैं वे कर्मपुद्गल जीवों के ही हैं। क्योंकि वे कर्म पुद्गल शीत, उष्ण, दंश-मशक आदि से युक्त स्थान में दुःखोत्पादक शय्या (वसति या उपाश्रय) में तथा दुःखकारक निषद्या (स्वाध्याय भूमि) में दुःखोत्पादक रूप से परिणत होते हैं। दुःख जीवों को ही होता है, अजीवों को नहीं। इसलिए यह स्पष्ट है कि दुःख के हेतुभूत कर्म जीवों ने ही संचित किये हैं। वे कर्म-पुद्गल
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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