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सोलहवाँ शतक: उद्देशक - २
विवेचन प्रस्तुत पाँच सूत्रों (सू. १२ से १६ तक) में शक्रेन्द्र के सम्बन्ध में गौतमस्वामी द्वारा किये गये निम्नोक्त प्रश्नों का समाधान अंकित है ।
[प्र.१] अवग्रह सम्बन्धी वक्तव्य सत्य हैं ?
[उ. ] सत्य है ।
[प्र. २] शक्रेन्द्र सम्यग्वादी है या मिथ्यावादी है ?
[.] सम्यग्वादी है।
[प्र. ४] निरवद्य भाषा बोलता है, या सावद्य ?
[प्र. ३] वह सत्य आदि चार प्रकार की भाषाओं में से कौन-सी भाषा बोलता है ? [उ.] चारों प्रकार की । [3.] दोनों प्रकार की भाषा बोलता है । [प्र.५] भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है ? सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि है ? । परितसंसारी है. या अपरित (अनन्त) संसारी है ? सुलभबोधि है या दुर्लभबोधि है ? आराधक है या विराधक है ? चरम है या अचरम है ? [3. ] इन सब में प्रशस्तपद ही ग्राह्य है । कठिन शब्दार्थ सावज्जं--सावद्य- - गर्हितकर्मसहित, पापयुक्त । अणवज्जं निरवद्य-निष्पाप । सुहुमकायं— सूक्ष्मकाय हस्त आदि वस्तु अथवा वस्त्र । अणिज्जूहित्ता लगाए बिना, ढँके बिना । अर्थात हाथ एवं वस्त्र आदि मुख पर लगा (ढँक) कर यतनापूर्वक बोलने वाले के द्वारा जीवरक्षा होती है, इसलिए वह भाषा निरवद्य होती है, इससे भिन्न सावद्य । सम्मावादी - सम्यग् बोलने के स्वभाव वाला, सम्य , सम्यग्वादनशील । सम्यग्वादनशील होते हुए भी प्रमाद आदि के वश सत्य भाषा भी गर्हित कर्म के लिए बोली जाए अथवा मुख पर वस्त्रादि या हाथ आदि लगाए बिना बोली जाए, वह भाषा सावद्य होती है।
जीव और चौवीस दण्डकों में चेतनकृत कर्म की प्ररूपणा
१७. [ १ ] जीवाणं भंते! किं चेयकडा कम्मा कज्जति, अचेयकडा कम्मा कति गोयमा ! जीवाणं चैयकडा कम्मा कति, नो अचेयकडा कम्मा कति ।
१.
(क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ७४९-७५०
T (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रथम खण्ड (श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) श. ३, उ. १, पृ. २९८
[१७-१ प्र.] भगवन्! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं या अचेतनकृत होते हैं ?
[१७ - १ उ. ] गौतम! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं, अचेतनकृत नहीं होते हैं ।
[ २ ] से केणट्ठणं भंते ! एवं वच्चइ जाव कज्जंति ?
गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिता पोग्गला बोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा
२. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७०१
म
५५५
(ख) भगवती (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २५२३
(ग) सहावद्येन—गर्हितकर्मणेति सावद्या तां । —अ. वृत्ति पत्र ७०१