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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
छठे उद्देशक में स्वप्नदर्शन, उसके प्रकार, स्वप्नदर्शन कब, कैसे और किस अवस्था में होता है ? स्वन
भेद - अभेद तथा कौन कैसे स्वप्न देखता है ? एवं तीर्थंकरादि की माता कितने-कितने स्वप्न देखती है ? तथा भ. महावीर के दस महास्वप्नों तथा उनकी फलनिष्पत्ति का वर्णन है । अन्त में, मोक्षफलदायक १४ सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है।
सातवें उद्देशक में उपयोग और उसके भेदों का प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। आठवें उद्देशक में लोक की लम्बाई-चौड़ाई के परिमाण का, तथा लोक के पूर्वादि विविध चरमान्तों में जीव, जीव के देश, जीव के प्रदेश, अजीव, अजीव के देश एवं अजीव के प्रदेश तथा तदनन्तर रत्नप्रभापृथ्वी से ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक में जीवादि छहों के अस्तित्त्व - नास्तित्त्व के विषय में शंकासमाधान है । तत्पश्चात् परमाणु की एक समय में लोक के सभी चरमान्तों में गति - सामर्थ्य की, एवं अन्त में वर्षा का पता लगाने के लिए हाथ-पैर आदि सिकोड़ने-पसारने वाले को लगने वाली पांच क्रियाओं की तथा अलोक में देव के गमन की असमर्थता की प्ररूपणा की गई है ।
नौवें उद्देशक में वैरोचनेन्द्र बली की सुधर्मा सभा के स्थान का संक्षिप्त वर्णन है ।
दसवें उद्देशक में अवधिज्ञान के प्रकार का प्रज्ञापना के ३३ वें अवधिपद के अतिदेशपूर्वक वर्णन किया गया है।
ग्याहरवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें उद्देशक में क्रमशः द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार और. स्तनितकुमार नामक भवनपतिदेवों के आहार, उच्छ्वास - निःश्वास, लेश्या, आयुष्य आदि की एक दूसरे से समानता-असमानता के विषय में शंका-समाधान प्रस्तुत किये गए हैं।
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इस प्रकार चौदह उद्देशक कुल मिला कर रोचक, तथा ज्ञान- दर्शन - चारित्र - संवर्द्धक सामग्री से परिपूर्ण हैं ।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ ( मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) पृ. ७४३ से ७७२ तक