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सोलसमंसयं: सोलहवां शतक
प्राथमिक
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व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के सोलहवें शतक में-चौदह उद्देशक हैं, जिनमें क्रिया, जरा, कर्म, कर्मक्षय-सामर्थ्य, देव की विपुल वैक्रियशक्ति एवं ऋद्धि, स्वप्न, उपयोग, लोकस्वरूप, बलीन्द्रसभा, अवधिज्ञान तथा भवनपति देवों में आहारादि की समानता-असमानता, आध्यात्मिक, शारीरिक, सामाजिक, भौगोलिक एवं दैवीशक्ति आदि विविध विषयों का समावेश किया गया है।
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प्रथम उद्देशक में एहरन पर हथौड़ा मारते समय दूसरे पदार्थ के स्पर्श से वायुकाल का हनन, सिगड़ी में अग्निकाय की स्थिति, भट्टी में लोहा तपाते समय तप्त लोहे को संडासी से उठाने, नीचे रखने, एहरन पर रखने आदि में कर्ता एवं साधन आदि को लगने वाली क्रियाओं की तथा जीव के अधिकरणी एवं
अधिकरण होने की सयुक्तिक चर्चा-विचारणा की गई है तथा विविध शरीरों इन्द्रियों और योगों को बांधते हुए चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के अधिकरणी-अधिकरण होने की भी चर्चा की गई है। द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में जरा और शोक किनको और क्यों होता है ? इसका निरूपण करके शक्रेन्द्र के आगमन, उसके द्वारा किया गया अवग्रह सम्बन्धी प्रश्न, शक्रेन्द्र के कथन की सत्यता, सम्यग्वादिता, उसकी सावद्य-निरवद्य भाषा, उसकी भव्यता-अभव्यता, तथा सम्यग्दृष्टित्व-मिथ्यादृष्टित्व आदि की चर्चा की गई है तथा अन्त में जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं या अचैतन्यकृत, इसका समाधान किया गया है। तृतीय उद्देशक में सर्वप्रथम कर्मप्रकृतियों के बन्ध, वेदन आदि के सह-अस्तित्व की चर्चा की गई है। तदनन्तर श्रमण के अर्शछेदन करने में वैद्य और श्रमण को लगने वाली क्रियाओं का निरूपण किया गया
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चतुर्थ उद्देशक में विविध कोटि के तपस्वी श्रमण जितने कर्मों का क्षय करते हैं, उतने कर्म नैरयिक जीव सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों वर्षों में खपाता है। यह सोदाहरण-सयुक्तिक प्रतिपादन किया गया है। पंचम उद्देशक में शक्रेन्द्र द्वारा भगवान् से किये गए संक्षिप्त प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर तथा उसका प्रत्यागमन, गौतम स्वामी द्वारा शक्रेन्द्र के शीघ्र लौट जाने के कारण की पृच्छा के उत्तर में भगवान् ने महाशुक्र कल्पस्थित गंगदत्त देव के आगमन, तथा उसके देव बनने का कारण एवं भविष्य में महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का वृतान्त बताया है।