________________
पन्द्रहवाँ शतक
५२३
वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न हुआ, अतः हे देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' भी हो।'
तत्पश्चात् उस देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' भी हो जाएगा।
तदनन्तर किसी दिन विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्याभाव (-अनार्यत्व) को अपना लेगा। वह कई श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करेगा किन्हीं का उपहास करेगा, कतिपय साधुओं को एक दूसरे से पृथक्-पृथक् कर देगा, कइयों की भर्त्सना करेगा। कई श्रमणों को गा, कइयों का निरोध (जेल में बंद) करेगा, कई श्रमणों के अंगच्छेदन करेगा, कुछ को मारेगा, कइयों पर उपद्रव करेगा, कतिपय श्रमणों के वस्त्र, पत्र, कम्बल और पादपोंछन को छिन्नभिन्न कर देगा, नष्ट कर देगा, चीर-फाड़ देगा या अपहरण कर लेगा। कई श्रमणो के आहार-पानी का विच्छेद करेगा और कई श्रमणों को नगर और देश से निर्वासित करेगा।
(उसका यह रवैया देख कर) रातद्वारनगर के बहुत-से राजा, ऐश्वर्यशाली यावत् सार्थवाह आदि परस्पर यावत् कहने लगेंगे- दवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा ने श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यपन अपना लिया है, यावत् कितने ही श्रमणों का इसने देश से निर्वासित कर दिया है, इत्यादि।अतः देवानुप्रियो ! यह हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है। यह न विमलवाहन राज के लिए श्रेयस्कर है और न राज्य, राष्ट्र, बल (सैन्य) वाहन, पुर, अन्त:पुर अथवा जनपद (देश) के लिए श्रेयस्कर है कि विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व को अंगीकार करे। अत: देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह उचित है कि हम विमलवाहन राजा को इस विषय में विनयपूर्वक निवेदन करें। इस प्रकार वे सब परस्पर एक-दूसरे की बात मानेंगे और इस प्रकार निश्चय करके विमलवाहन राजा के पास आएँगे। करबद्ध होकर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से बधाई देंगे। फिर इस प्रकार कहेंगे—हे देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आपने अनार्यत्व अपनाया है; कइयों पर आप आक्रोश करते हैं; यावत् कई श्रमणों को आप देश-निर्वासित करते हैं । अतः हे देवानुप्रिय ! यह आपके लिए श्रेयस्कर नहीं है, न हमारे लिए श्रेयस्कर है और न ही यह राज्य, राष्ट्र यावत् जनपद के लिए श्रेयस्कर है कि आप देवानुप्रिय श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व स्वीकार करें। अतः हे देवानुप्रिय ! आप इस अकार्य को करने से रुकें (इस दुराचरण को बन्द करें)।
तदनन्तर इस प्रकार जब वे राजेश्वर यावत् सार्थवाह आदि विनयपूर्वक राजा विमलवाहन से विनति करेंगे, तब वह राजा-धर्म (कुछ) नहीं, तप निरर्थक है, इस प्रकार की बुद्धि होते हुए भी मिथ्या-विनय बता कर उनकी इस विनति को मान लेगा।
उस शतद्वारनगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में सुभूमि भाग नाम का उद्यान होगा, जो सब ऋतुओं के फलपुष्पों से समृद्ध होगा, इत्यादि वर्णन पूर्ववत्।
उस काल उस समय में विमल नामक तीर्थंकर के प्रपौत्र-शिष्य 'सुमंगल' नामक होंगे। उनका वर्णन (शतक ११, उ. ११, सू. ५३ में उक्त) धर्मघोष अनगार के समान, यावत् संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या वाले, तीन ज्ञानों से युक्त वह सुमंगल नामक अनगार, सुभूमिभाग उद्यान से न अति दूर और न अति निकट निरन्तर छठ