________________
पन्द्रहवाँ शतक वर्णन सर्वानुभूति अनगार के समान, यावत्-सभी दु:खों का अन्त करेगा; यहाँ तक कहना चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (१३०) में सुनक्षत्र अनगार की भावी गति-उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् द्वारा दिये गये उत्तर का निरूपण है। गोशालक का भविष्य
१३१. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते, से णं भंते ! गोसाले मंखलिपत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववन्ने ?
एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते, समणघातए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिमसूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने।तत्थ णं अत्यंगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीस सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता।
[१३१ प्र.] भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? . [१३१ उ.] हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक, जो श्रमणों का घातक था, यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही काल के समय में काल करके ऊँचे चन्द्र और सूर्य का यावत् उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। उनमें गोशालक की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है।
विवेचन—गोशालक अन्तिम समय में सम्यग्दृष्टि होकर आराधनापूर्वक शुभभावों से कालधर्म को प्राप्त हुआ था, इसलिए गोशालक भी अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुआ और भगवान् ने उसकी अनन्तर गति और उत्पत्ति प्रस्तुत सूत्र में अच्युतकल्प के देवरूप में बताई है। गोशालक : देवभव से लेकर मनुष्यभव तक : विमलवाहन राजा के रूप में
१३२. से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहिं उववजिहिति ?
गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु सत्तदुवारे नगरे सम्मुतिस्स रनो भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति। से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वोतिक्कंताणं जाव सुरूवे दारए पयाहिति, जं रयणिं च णं से दारए जाहिति, तं रयणिं च णं सतदुवारे नगरे सब्भंतरबाहिरिए भारग्गसो ये कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति। तए णं तस्स दारगस्स अम्मपियरो एक्कारसमे दिवसे वीतिक्कंते जाव संपत्ते बारसाहदिवसे अयमेयारूवंगोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेनं काहिंति—जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणंसि सत्दुवारे नगरे सब्भंतरबाहिरिए जाव रयणवासे य वासे वुढे, तं होउणं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेनं १. वियाहण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ७३१-७३३