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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
तेज से ( जला कर) भस्म कर दिया था, वह मर कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ?'
[१२९ उ.] हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी पूर्वदेशोत्पन्न सर्वानुभूति अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था, जिसे उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से जला कर भस्मसात् कर दिया था, ऊपर चन्द्र और सूर्य का यावत् ब्रह्मलोक, लान्तक और महाशुक्र कल्प का अतिक्रमण कर सहस्रारकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ के कई देवों की स्थिति अठारह सागरोपम की कही गई है। सर्वानुभूति देव की स्थिति भी अठारह सागरोपम की है। वह सर्वानुभूति देव उस देवलोक से आयुष्यक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर यावत् महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में (जन्म लेकर) सिद्ध होगा यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (१२९) में श्री गौतम स्वामी द्वारा सर्वानुभूति अनगार की गति-उत्पत्ति के सम्बन्ध में भगवान् से पूछे गये प्रश्न का उत्तर प्रतिपादित है। सुनक्षत्र अनगार की भावी गति-उत्पत्तिसम्बन्धी निरूपण
१३०. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवते सुनक्खत्ते नाम अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए, से णं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेयेणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववन्ने ?
एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए, से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेयेणं परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छति, उवा० २ वंदति नमसति, वं० २ सयमेव पंच महव्वयाई आरुभेति, सयमेव पंच० आ० २ समणा य समणीओ य खामेति, स० खा० २ आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उ8 चंदिम-सूरिय जाव आणय-पाणयारणे कप्पे वीतीवइत्ता अच्चुते कप्पे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिती पन्नता, तत्थ णं सुनक्खत्तस्स वि देवस्स बावीस सागरोवमाइं०, सेसं जहा सव्वाणुभूति जाव अंतं काहिति।
[१३० प्र.] भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कौशलजनपदोत्पन्न सुनक्षत्र नामक अनगार जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, वह मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने तप-तेज से परितापित किये जाने पर काल के अवसर पर काल करके कहाँ गया ? कहाँ उत्पन्न हुआ?
[१३० उ.] गौतम ! मेरा अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था; वह उस समय मंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से परितापित होकर मेरे पास आया। फिर उसने मुझे वन्दन-नमस्कार करके स्वयमेव पंचमहाव्रतों का उच्चारण (आरोपण) किया। फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमापना की और आलोचना-प्रतिक्रमण करके, समाधि प्राप्त कर काल के समय में काल करके ऊपर चन्द्र और सूर्य को यावत् आनत-प्राणत और आरण-कल्प का अतिक्रमण करके वह अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। सुनक्षत्र देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। शेष सभी