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________________ पन्द्रहवाँ शतक ‘भगवान् के कहने से मैं जानता हूँ।' १२५. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ० जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० पत्तं मोएति, पत्तं मो० जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छति, उवा० २ सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं सम्मं निसिरति । ५१५ [१२५] तब सिंह अनगार से यह बात सुन कर एवं अवधारण करके वह रेवती गाथापत्नी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर जहाँ रसोईघर था, वहाँ गई और (बिजौरापाक वाला) बर्तन खोला। फिर उस बर्तन को लेकर सिंह अनगार के पास आई और सिंह अनगार के पात्र में वह सारा पाक सम्यक् प्रकार से डाल (बहरा) दिया। १२६. तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धेणं जाव दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे जहा विजयस्स (सु० २६) जाव जम्मजीवियफले रेवतीए गाहावतिणीए, रेवती गाहावतिणीए । [१२६] रेवती गाथापत्नी ने उस द्रव्यशुद्धि, दाता की शुद्धि एवं पात्र (आदाता) की शुद्धि से युक्त, यावत् प्रशस्त भावों से दिये गए दान से सिंह अनगार को प्रतिलाभित करने से देवायु का बन्ध किया यावत् इसी शतक में कथित विजय गाथापति के समान रेवती के लिए भी ऐसी उद्घोषणा हुई— 'रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया, रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन सफल कर लिया । ' १२७. तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिक्खमति, पडि० २ मेंढियग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, नि० २ जहा गोयमसामी (स० २३०५ सु० २५ [१] ) जाव भत्तपाणं ... पडिदंसेति, भ० प० २ समणस्स भगवतो महावीरस्स पाणिंसि तं सव्वं सम्मं निसिरति । [१२७] इसके पश्चात् वे सिंह अनगार, रेवती गाथापत्नी के घर से निकले और मेंढिकग्राम के मध्य में से होते हुए भगवान् के पास पहुँचे और (श. २ उ. ५ सू. २५ - १ में कथितानुसार) गौतम स्वामी के समान यावत् (लाया हुआ) आहार- पानी दिखाया। फिर वह सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के हाथ में सम्यक् प्रकार से रख (दे) दिया। १२८. तए णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणज्झोववन्ने बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीरकोट्ठगंसि पक्खिवइ । तए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसंते हट्टे जाए अरोए बलियसरीरे । तुट्ठा समणा, तुट्ठाओ समणीओ, तुट्ठा सावगा, तुट्ठाओ सावियाओ, तुट्ठा देवा, तुट्ठाओ देवीओ सदेवमणुयासुरे लोए तुट्ठे हट्ठे जाए'समणे भगवं महावीरे हट्टे, समणे भगवं महावीरे हट्ठे । ' [१२८] तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अमूर्च्छित (अनासक्त) यावत् लालसारहित (भाव से) बिल में सर्प - प्रवेश के समान उस (औषधरूप) आहार को शरीररूपी कोठे में डाल दिया। वह ( औषधरूप) आहार करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का वह महापीडाकारी रोगातंक शीघ्र ही शान्त हो गया। वे
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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