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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उवागच्छइ, उवा० समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, व० २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ सालकोट्ठयाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, पडि० २ अतुरिय जाव जेणेव मेंढियग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छति, उवा० २ मेंढियग्गामं नगरं मझमझेणं जेणेव रेवतीए गाहत्तिणीए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवा० २ रेवतीय गाहावतिणीए गिहं अणुप्पवितु।
[१२२] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा इस प्रकार का आदेश पाकर सिंह अनगार हर्षित सन्तुष्ट यावत हृदय में प्रफुल्लित हए और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, फिर त्वरा, चपलता और उतावली से रहित हो कर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया (शतक २ उ.५ सू. २२ में उक्त कथन के अनुसार) गौतम स्वामी की तरह भगवान् महावीर स्वामी के पास आए, वन्दन-नमस्कार करके शालकोष्ठक उद्यान से निकले। फिर त्वरा चपलता और शीघ्रता रहित यावत मेंढिकग्राम नगर के मध्य भाग में हो कर रेवती गाथापत्नी के घर की ओर चले और उसके घर में प्रवेश किया।
१२३. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं एजमाणं पासति, पा० हट्ठतुट्ठ० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेति, खि० आ० २ सीहं अणगारं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, स० अणु० २ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेति, क० २ वंदति नमंसति, वं० २ एवं वयासी—संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पओयणं ? तए णं से सीहे अणगारे रेवतिं गाहावतिणिं एवं वयासि—एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! समणस्स भगवतो महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अटे, अत्थि ते अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो।
[१२३] तदनन्तर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार को ज्यों ही आते देखा, त्यों ही हर्षित एवं सन्तुष्ट होकर शीघ्र अपने आसन से उठी। सिंह अनगार के समक्ष सात-आठ कदम गई और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके। वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोली-'देवानुप्रियो ! कहिये, किस प्रयोजन से आपका पधारना हुआ ?'
तब सिंह अनगार ने रेवती गाथापत्नी से कहा हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर के लिए तुमने जो कोहले को दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे प्रयोजन नहीं है, किन्तु मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला बिजौरापाक, जो कल का बनाया हुआ है, वह मुझे दो, उसी से प्रयोजन है।'
१२४. तए णं रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं एवं वदासि—केस णं सीहा ! से णाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एस अटे मम आतरहस्सकडे हव्वमक्खाए जतो णं तुमं जाणासि ? एवं जहा खंदए ( स० २ उ० १ सु० २० [२]) जाव जतो णं अहं जाणामि।
[१२४] इस पर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार से कहा—हे सिंह अनगार ! ऐसे कौन ज्ञानी अथवा तपस्वी हैं जिन्हौने मेरे अन्तर की यह रहस्यमय बात जान ली और आप से कह दी, जिससे कि आप यह जानते हैं ?' सिंह अनगार से (शतक २ उ. १ सू. २०/२ में उक्त) स्कन्दक के वर्णन के समान (कहा—) यावत्