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________________ पन्द्रहवाँ शतक (५) श्रमणों के साथ सिंह अनगार का भगवान् के समीप आगमन, वन्दन - नमन पर्युपासना ।" कठिन शब्दार्थ झाणंतरियाए — ध्यानान्तरिका - एक ध्यान की समाप्ति और दूसरे ध्यान का प्रारम्भ होने से पूर्व कुहुकुहुस्स परुन्ने — कहुकुहुशब्दपूर्वक (हृदय में दुःख न समाने से सिसक-सिसक कर रोए । मो-मासिणं दुक्खेणं— मनोगत मानसिक दुःख से, अर्थात् — जो दुःख वचन आदि द्वारा अप्रकाशित होने से मन में ही रहे उस दुःख से । सद्दह — बुला लाओ । ५१३ १२१. 'सीहा !' दि समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं वयासि—' से नूणं ते सीहा ! झाणंतरिया वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव परुन्ने। से नूणं ते सीहा ! अट्ठे समट्ठे ?' हंता, अत्थि । 'तं नो खलु अहं सींहा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेयेणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाव कालं करेस्सं । अहं णं अन्नाई अद्धसोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि । तं गच्छ णं तुमं सीहा ! मेंढियगामं नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिहं, तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अत्थि से अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो ।' [१२१] हे सिंह ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने सिंह अनगार से इस प्रकार कहा—' हे सिंह ! ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए तुम्हें इस प्रकार की चिन्ता उत्पन्न हुई यावत् तुम फूट-फूट कर रोने लगे, तो हे सिंह ! क्या यह बात सत्य है ?' ( सिंह का उत्तर— -) 'हाँ, भगवन् ! सत्य है।' (भगवान् सिंह अनगार को आश्वासन देते हुए - ) हे सिंह ! मंखलिपुत्र गोशालक के तपतेज द्वारा पराभूत होकर मैं छह मास के अन्दर, यावत् (हर्गिज) काल नहीं करूंगा। मैं साढ़े पन्द्रह वर्ष तक गन्धहस्ती के समान जिन (तीर्थंकर) रूप में विचरूंगा। (यद्यपि मेरा शरीर पित्तज्वराक्रान्त है, मैं दाह की उत्पत्ति से पीडित हूँ; अतः मेरे मरण की चिन्ता से मुक्त होकर) हे सिंह ! तुम मेंढिकग्राम नगर में रेवती गाथापत्नी के घर जाओ और वहाँ रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, अर्थात् वे मेरे लिए ग्राह्य नहीं हैं, किन्तु उसके यहाँ मार्जार नामक वायु को शान्त करने के लिए जो बिजौरापाक कल का तैयार किया हुआ है, उसे ले आओ। उसी से मुझे प्रयोजन है। १२२. तए णं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ट० जाव हियए समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, व० २ अतुरियमचलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति, मु०प० २ जहा गोयमसामी (स०२ उ०५ सु०२२) जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, १. वियाहण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ७२८-७२९ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९० (ख) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४६३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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