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________________ ५१६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हृष्ट-पुष्ट, रोगरहित और शरीर से बलिष्ठ हो गए। इससे सभी श्रमण तुष्ट (प्रसन्न) हुए, श्रमणियां तुष्ट हुईं, श्रावक तुष्ट हुए, श्राविकाएँ तुष्ट हुईं, देव तुष्ट हुए, देवियां तुष्ट हुईं, और देव, मनुष्य एवं असुरों सहित समग्र लोक तुष्ट एवं हर्षित हो गया। (कहने लगे—) श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हुए, श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हुए।' विवेचन—प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १२१ से १२८ तक) में रेवती गाथापत्नी के यहाँ बने हुए बिजौरापाक को सिंह अनगार द्वारा लाने और भगवान् के द्वारा उसका सेवन करने से स्वस्थ एवं रोगमुक्त होने का तथा श्रमणादि समग्र लोक के प्रसन्न होने का वृतान्त प्रस्तुत किया गया है। __शंका-समाधान—प्रस्तुत प्रकरण में आगत 'दुवे कवोयसरीरा' तथा 'मज्जारकडए कुक्कुडमंसए' ये मूलपाठ विवादास्पद हैं। जैन तीर्थंकरों एवं श्रमण-श्रावकवर्ग की मौलिक मर्यादाओं तथा आगम-रहस्यों से अनभिज्ञ लोग इस पाठ का मांसपरक अर्थ करके भगवान् महावीर पर मांसाहारी होने का आक्षेप करते हैं। परन्तु यह उनकी भ्रान्ति है। क्योंकि एक तो ऐसा आहार तीर्थंकर या साधु वर्ग के लिए तो क्या, सामान्य मार्गानुसारी गहस्थ के लिए भी हर परिस्थिति में वर्जित है। दसरेखन की दस्तों को बंद करने एवं संग्रहणी रोग तथा वातपित्तशमन के लिए मांसाहार कथमपि पथ्य नहीं है। यही कारण है कि इनके अर्थ 'निघण्टु' आदि कोषों में वनस्पति-परक मिलते हैं, वृत्तिकार ने भी वनस्पतिपरक अर्थ से इसकी संगति की है। कवोयसरीरा : दो अर्थ-(१) कपोत (कबुतर) पक्षी के वर्ण के समान फल भी कपोत-कूष्माण्ड (कोहला), छोटा कपोतकपोतक (छोटा कोहला), तद्रूप शरीर–वनस्पतिजीव-देह होने से कपोतशरीर, अथवा (२) कपोत शरीर की तरह धूसरवर्ण की सदृशता होने से कपोतकफल यानी कूष्माण्डफल, अर्थात् संस्कृत किए हुए कपोत (कूष्माण्डफल)। मज्जारकडए कुक्कुडमंसए-दो अर्थ-(१) मार्जार नामक उदरवायु विशेष, उसका उपशमन करने के लिए कृत—संस्कृत—मार्जारकृत, अथवा (२) मार्जार अर्थात्-विरालिका नामक वनस्पतिविशेष उससे कृत—भावित। कुर्कुटमांसक अर्थात्—बिजौरापाक (बीजपूरककटाह) । प्रस्तुत प्रकरण में रेवती गाथापत्नी के यहाँ से भगवान् ने कोहलापाक न लाने तथा बिजौरापाक लाने का आदेश क्यों दिया ? इसका समाधान १. (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका) भा. ११, पृ. ७७८ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४६९ (ग) नरकगति के ४ कारण के लिए देखो-स्थानांग, स्था ४ .............."कणिमाहारेण ।' २. (क) पित्तनं तेषु कूष्माण्डम्। -सुश्रुतसंहिता (ख) कूष्माण्डं शीतलं वृष्यं' –कैयदेवनिघण्टु (ग) “पारावतं सुमधुरं रुच्यमत्यनिवातनुत्।' –सुश्रुतसंहिता (घ) स्थानांगसूत्र, स्थान ७, सू. ६, वृत्ति (ड) 'वत्थुल-पोरग-मज्जार-पोइवल्लीय -पालक्का।' –प्रज्ञापनापद १ (च) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९१ (छ) रेवतीदानसमालोचना
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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