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पन्द्रहवाँ शतक
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कठिन शब्दों का अर्थ — मालुयाकच्छए – एक गुठली वाले वृक्षविशेषों का कच्छ— गहन वन । विउले–विपुल, शरीरव्यापी । रोगायंके— रोगातंक - पीडाकारी व्याधि । उज्जले – उज्वल - तीव्र । पाउब्भए— प्रकट हुआ। दुरहियासे— दुःसह । दाहवक्कंतिए — दाह की उत्पति से । लोहिय - वच्चाई — खून की दस्तें । चाउव्वण्णं—ब्राह्मणादि चार वर्ण, अथवा साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विधसंघ (चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ ) ।
अफवाह सुनकर सिंह अनगार को शोक, भगवान् द्वारा सन्देश पा कर सिंह अनगार का उनके पास आगमन
११६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी सीहे नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूरसामंते छट्टंछट्टेणं अनिखित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डूंवाहा० जाव विहरति ।
[११६] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के एक अन्तेवासी सिंह नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे । वे मालुकाकच्छ के निकट निरन्तर (लगातार) छठ-छठ (बेले-बेले) तपश्चरण के साथ अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठा कर यावत् आतापना लेते थे।
११७. तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स भगवतो माहवीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउब्भूते उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्सति, वदिस्संति यं णं अन्नतित्थिया 'छउमत्थे चेव कालगए' इमेणं एयारूवेणं महय मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभति, आया० प० २ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति, उवा० २ मालुयाकच्छयं अंतो अंतो अपुष्पविसति, मा० अणु २ महया महया सद्देणं कुहुकुहुस्स परुन्ने ।'
[११७] उस समय की बात है, जब सिंह अनगार ध्यानान्तरिका में ( एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने में ) प्रवृत्त हो रहे थे; तभी उन्हें इस प्रकार का आत्मगत यावत् चिन्तन उत्पन्न हुआ— मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में विपुल ( शरीरव्यापी) रोगातंक प्रकट हुआ, जो अत्यन्त दाहजनक (उज्वल) है, इत्यादि यावत् वे छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाएँगे। तब अन्यतीर्थिक कहेंगे — 'वे छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गए । '
इस प्रकार के इस महामानसिक मनोगत दुःख से पीडित बने हुए सिंह अनगार आतापनाभूमि से नीचे उतरे। फिर वे मालुकाकच्छ में आए और उसके अंदर प्रविष्ट हो गए। फिर वे जोर-जोर से रोने लगे।
११८. 'अज्जो' त्ति समणे भगवं महावीरे समथे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वदासी– ' एवं
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(क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६९०
(ख) भगवती (हिन्दीविवेचन ) भा. ५, पृ. २४६३