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ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक - १
से आहार करते हैं। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।
४१. सिणं भंते! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं । [ दारं २९] [४१ प्र.] भगवन् ! उन उत्पल के जीवों की स्थिति कितने काल की है ? [४१ उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है।
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- अट्ठाईसवाँ द्वार ]
[ — उनतीसवाँ द्वार ]
४२. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्धाया' पन्नत्ता, तं जहा — वेदणासमुग्धाए कसायसमुग्धाएमारणंतिय
[ दारं ३० ]
समुग्धाए।
[४२ प्र.] भगवन् ! उन (उत्पल के) जीवों में कितने समुद्घात कहे गये हैं ?
[४२ उ.] गौतम ! उनमें तीन समुद्घात कहे गये हैं, यथा —— वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात ।
४३. ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्धाएणं किं समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? 'गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति ।
[४३ प्र.] भगवन् ! वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? [४३ उ.] गौतम ! (वे उत्पल के जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा ) समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं ।
४४. ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ?, कहिं उववज्जंति ?, किं नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति० ?
एवं जहा वक्कंतीए उव्वट्टणाए वणस्सइकाइयाणं तहा भाणियव्वं ।
[ दारं ३१ ]
[४४ प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव मर (उद्वर्तित हो) कर तुरन्त कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होते हैं ?
१. समुद्घात के लिए देखें — प्रज्ञापना. पद ३६, पत्र ५५८
२.
देखिये – प्रज्ञापनासूत्र वृत्ति पद ६, पत्र २०४
[ ४४ उ.] गौतम !, ( उत्पल के जीवों की अनन्तर उत्पत्ति के विषय में) प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिक पद के उद्वर्त्तना- प्रकरण में वनस्पतिकायिकों के वर्णन के अनुसार कहना चाहिए ।
[ - तीसवाँ इकतीसवाँ द्वार ]