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________________ २० उप्पलजीवे त्ति० पुच्छा० ? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं काला सेणं जहन्त्रेण दो अन्तोमुहुत्ता, उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहत्तं । एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागतिं करेज्जा । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३८ प्र.] भगवन् ! उत्पल का वह जीव पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकजीव में जाकर पुनः उत्पल के जीव में आए तो इसमें उसका कितना काल व्यतीत होता है ? वह कितने काल तक गमनागमन करता है ? [ ३८ उ.] गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव ( - ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट आठ भव (चार तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के और चार भव उत्पल के ग्रहण) करता है । कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक रहता है । इतना काल वह उसमें व्यतीत करता है । इतने काल तक गतिआगति करता है । ' ३९. एवं मणुस्सेण वि समं जाव एवतियं कालं गतिरागतिं करेज्जा ? [ दारं २७ ] [ ३९ ] इसी प्रकार मनुष्ययोनि के विषय में भी जानना चाहिए, यावत् इतने काल उत्पल का वह जीव गमनागमन करता है । [ - सत्ताईसवाँ द्वार] - विवेचन—उत्पलजीव का अनुबन्ध और कायसंवेध — प्रस्तुत ९ सूत्रों (३१ से ३९ तक) में उत्पलजीव अनुबन्ध और संवेध के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है। अनुबन्ध और कायसंवेध — उत्पल का जीव उत्पल के रूप में उत्पन्न होता रहे, उसे अनुबन्ध कहते हैं और उत्पल का जीव पृथ्वीकायादि दूसरे कायों में उत्पन्न होकर पुनः उत्पल रूप में उत्पन्न हो, इसे कायसंवेध कहते हैं। प्रस्तुत ८ सूत्रों (३२ से ३९ तक) में उत्पलजीव के संवेध का निरूपण दो प्रकार से भवादेश और कालादेश की अपेक्षा से किया गया है। अर्थात् उत्पल का जीव भव की अपेक्षा से कितने भव ग्रहण करता है और SIM की अपेक्षा से कितने काल तक गमनागमन करता है, इसकी प्ररूपणा की गई है। २८ से ३१- आहार- -स्थिति- समुद्घात-उद्वर्तना- द्वार ४०. ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणंतपदेसियाइं दव्वाइं०, एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सतिकाइयाणं आहारो तहेव जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति, नवरं नियमं छद्दिसिं, सेसं तं चेव । [ दारं २८ ] [४० प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव किस पदार्थ का आहार करते हैं ? [४० उ.] गौतम ! वे जीव द्रव्यतः अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं इत्यादि, जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाईसवें पद के आहार- उद्देशक में वनस्पतिकायिक जीवों के आहार के विषय में कहा है कि वे सर्वात्मना (सर्वप्रदेशों से) आहार करते हैं, यहाँ तक सब कहना चाहिये। विशेष यह है कि वे नियमत: छह दिशा १. भगवती. विवेचन भा. (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १८६३ २. देखिये प्रज्ञापनासूत्र भा. १, पद २०, उ. १, पृ. ३९५, सूत्र १८१३ ( महावीर जैन विद्यालय)
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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