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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन—उत्पलजीवों के आहार, स्थिति, समुद्घात और उद्वर्तन विषयक प्ररूपणा—प्रस्तुत ५ सूत्रों (४० से ४४ तक ) में उत्पलजीवों के आहारादि के विषय में प्ररूपणा की गई है। नियमत: छह दिशा से आहार क्यों ?—पृथ्वीकायिक आदि जीव सूक्ष्म होने से निष्कुटों (लोक के अन्तिम कोणों) में उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिए वे कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं से आहार लेते हैं तथा निर्व्याघात की अपेक्षा से छहों दिशाओं से आहार लेते हैं । किन्तु उत्पल के जीव बादर होने से वे निष्कुटों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए वे नियमत: छहों दिशाओं से आहार करते हैं।' अनन्तर उद्वर्तन कहाँ और क्यों-उत्पल के जीव वहाँ से मर कर तुरन्त मनुष्यगति या तिर्यञ्चगति में जन्म लेते हैं, देवगति या नरकगति में उत्पन्न नहीं होते। ४५. अह भंते ! सव्वपाणा सव्वभूया सव्वजीवा सव्वसत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंदत्ताए उप्पलनालत्ताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरत्ताए उप्पलकण्णियत्ताए उप्पलथिभुगत्ताए उववन्नपुव्वा ? हंता, गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो। [ दारं ३२] सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥एक्कारसमे सए पढमो उप्पलुद्देसओ समत्तो ॥११.१ ॥ [४५ प्र.] भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि सभी प्राण, सभी भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व; क्या उत्पल के मूलरूप में, उत्पल के कन्दरूप में, उत्पल के नालरूप में, उत्पल के पत्ररूप में, उत्पल के केसररूप में, उत्पल की कर्णिका के रूप में या उत्पल के थिभुग के रूप में इससे (उत्पलपत्र में उत्पन्न होने से) पहले उत्पन्न हुए हैं ? [४५ उ.] हाँ, गौतम ! (सभी प्राण, भूत, जीव और सत्व, इससे पूर्व) अनेक बार अथवा अनन्तबार (पूर्वोक्तरूप से उत्पन्न हुए हैं।) [-बत्तीसवाँ द्वार] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! यह इसी प्रकार है !' यों कहकर गौतमस्वामी, यावत् विचरण करते हैं। विवेचन—समस्त संसारी जीवों का उत्पल के मूलादि में जन्म-प्रस्तुत सूत्र ४५ में बताया गया है कि कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं है, जो वर्तमान में जिस गति-योनि में है, उसमें या उससे भिन्न ८४ लाख जीवयोनियों में इससे पूर्व अनेक या अनन्त बार उत्पन्न न हुआ हो। इसी दृष्टि से भगवन् ने कहा कि समस्त जीव उत्पल के मूल, कन्द, नाल आदि के रूप में अनेक या अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं; इसी जन्म में वे उत्पन्न हुए १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५१३ २. वही, पत्र ५१३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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