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________________ पन्द्रहवाँ शतक राजधानी) आदि हो । अथवा पठानकोट, सियालकोट आदि में से कोई हो । पाट— - संभव है पाटलीपुत्र का ही दूसरा नाम हो । लाट — वर्तमान में सिंहभूम या संथालपरगना, जहाँ आदिवासीबहुल जनता है। वज वइर–वर्तमान में वीरभूम ही प्राचीन वज्रभूमि । काशी, कौशल (अयोध्या) आदि प्रसिद्ध हैं । घात आदि शब्दों के विशेषार्थ — घात — हनन, वध— विनाश, उच्छादन — समूलनाश, उच्चाटन, भस्मीकरण— भस्मसात् करना। निजपाप-प्रच्छादनार्थ गोशालक द्वारा अष्टचरम एवं पानक-अपानक की कपोल-कल्पितमान्यता का निरूपण ४९७ ८८. जं पि य अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबऊणगहत्थगए मज्जपाणं पियमाणे अभिक्खणं जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरति । तस्स वि णं वज्जस्स पच्छायणट्ठताए इमाइं अट्ठ चरिमाइं पन्नवेति, तं जहा― चरिमे पाणे, चरिमे गेये, चरिमे नट्टे, चरिमे अंजलिकम्मे, चरिमे पुक्खलसंवट्टए महामेहे, चरिमे सेयणए गंधहत्थी, चरिमे महासिलाकंटए संगामे, अहं च णं इमीसे ओसप्पिणिसमाए चडवीसाए तित्थकराणं चरिमे तित्थकरे सिज्झिस्सं जाव अंतं करेस्सं । [८८] हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालंक, जो हालाहला कुम्भारिन की दूकान में आम्रफल हाथ में लिए हुए मद्यपान करता हुआ यावत् बार-बार (गाता, नाचता और अंजलिकर्म करता हुआ विचरता है, वह अपने उस (पूर्वोक्त मद्यपानादि) पाप को प्रच्छादन करने ( ढँकने) के लिए इन (निम्नोक्त) आठ चरमों (चरम पदार्थों) की प्ररूपणा करता है । यथा – (१) चरम पान, (२) चरम - गान, (३) चरम नाट्य (४) चरम अंजलिकर्म, (५) चरम पुष्कल - संवर्त्तक महामेघ, (६) चरम सेचनक गन्धहस्ती, (७) चरम महाशिलाकण्टक संग्राम और (८) (चरमतीर्थंकर) 'मैं (मंखलिपुत्र गोशालक) इस अवसर्पिणीकाल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थंकर होकर सिद्ध होऊंगा यावत् सब दुःखों का अन्त करूँगा ।' ८९. जंपिय अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टियापाणएणं आदंचणिउदएणं गायाइं परिसिंचेमाणे विहरति तस्स वि णं वज्जस्स पच्छायणट्टयाए इमाइं चत्तारि पाणगाईं, चत्तारि अपागाईं पन्नवेति । [८९] ‘हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी के बर्तन में मिट्टी - मिश्रित शीतल पानी द्वारा अपने शरीर का सिंचन करता हुआ विचरता है; वह भी इस पाप को छिपाने के लिए चार प्रकार के पानक (पीने योग्य) और चार प्रकार के अपानक ( नहीं पीने योग्य, किन्तु शीतल और दाहोपशमक) की प्ररूपणा करता है । १. पाइअसद्दमहण्णवो ( द्वितीयसंस्करण १९६३) २. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. ११, पृ. ६९०-६९१
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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