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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दार्थ हव्वमागए—जल्दी-जल्दी आया था। असाहेमाणे—नहीं साधे जाने पर। रुंदाई पलोएमाणे-दिशाओं की ओर दीर्घ दृष्टिपात करता हुआ। दीहुण्हं नीससमाणे—दीर्घ और गर्म निःश्वास डालता हुआ।अवडं कंडूयमाणे—गर्दन के पीछे के भाग (घांटी) को खुजलाता हुआ। पुयलिं पप्फोडेमाणेकूल्हे या जांघ को ठोकता हुआ।विणिद्भुणमाणे-हिलाता हुआ।अभिक्खणं-बारबार । कोट्टेमाणेकूटता या पीटता हुआ। अंबकूणग-हत्थगए—आम्रफल हाथ में लेकर। मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं-मिट्टी मिले हुए ठंडे पानी (जिसका दूसरा नाम आतञ्चनिकोदक है) से, गायाइं—शरीर के अंगोपांग। भगवत्प्ररूपित गोशालक की तेजोलेश्या की शक्ति
८७. 'अजो' ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासि—जावतिए णं अजो ! गोसालेणं मंखलीपुत्तेणं ममं वहाए सरीरगंसि तेये निसटे से णं अलाहि पज्जत्ते सोलसण्हं जणवयाणं, तं जहा—अंगाणं वंगाणं मगहाणं मलयाणं मालवगाणं अच्छाणं वच्छाणं कोट्ठाणं पाढाणं लढाणं वज्जाणं मोलीणं कासीणं कोसलाणं अवाहाणं सुंभुत्तराणं घाताए वहाए उच्छादणताए भासीकरणताए।
[८७] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणनिर्ग्रन्थों को 'हे आर्यो ! ' इस प्रकार सम्बोधित करके कहा—हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरा वध करने के लिए अपने शरीर में से जितनी तेजोलेश्या (तेज) निकाली थी, वह (निम्नोक्त) सोलह जनपदों (देशों) का घात करने, वध करने, उच्छेदन करने और भस्म करने में पूरी तरह पर्याप्त (समर्थ) थी। वे सोलह जनपद ये हैं—(१) अंग (वर्तमान में असम), (२) बंग (बंगाल), (३) मगध, (४) मलयदेश (मलयालम प्रान्त), (५) मालव-देश (वर्तमान में मध्यप्रदेश), (६)अच्छ, (७) वत्सदेश, (८) कौत्सदेश, (९) पाट, (१०) लाढदेश, (११) वज्रदेश, (१२) मौली, (१३) काशी, (१४) कोशल, (१५) अवध और (१६) सुम्भुक्तर।
विवचेन—प्रस्तुत सूत्र (८७) में गोशालक द्वारा भगवान् को मारने के लिए निकाली गई तेजोलेश्या की प्रचण्ड शक्ति का निरूपण किया गया है। गोशालक द्वारा दुरुपयोग के कारण वह शक्ति उसी के लिए मारक बनी।
कुछ जनपदों के वर्तमान सम्भावित नाम–अंग–असम, आसाम। वंग–बंगाल। मगधबिहारान्तर्गत राजगृह आदि। मलय कोचीन और मलयालम प्रान्त ।मालव–वर्तमान में मध्यप्रदेश, मध्यप्रान्त। अच्छ—कच्छ का ही दूसरा नाम हो, अथवा सम्भव है अच्छनेरा आदि जनपद हो। वच्छ—वत्स देश, कौशम्बीनगरी जिसकी राजधानी थी। कोच्छ—को?—कौत्स या कोष्ठ-संम्भव है काठमांडू (नेपाल की
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८४
(ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिकाटीका भा. ११, पृ. ६८८-६८९