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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
महावीर का वध करने के लिए उसने अपने शरीर में से तेजोनिसर्ग किया (तेजोलेश्या निकाली)। जिस प्रकार वातोत्कलिका (ठहर-ठहर कर चलने वाली वायु) वातमण्डलिका (मण्डलाकार होकर चलने वाली हवा) पर्वत, भींत, स्तम्भ या स्तूप से आवारित (स्खलित) एवं निवारित (अवरुद्ध या निवृत्त) होती (हटती) हुई उन शैल आदि पर अपना थोड़ा-सा भी प्रभाव नहीं दिखाती, न ही विशेष प्रभाव दिखाती है। इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर का वध करने के लिए मंखलीपुत्र गोशालक द्वारा अपने शरीर से बाहर निकाली (छोड़ी) हुई तपोजन्य तेजोलेश्या, भगवान् महावीर पर अपना थोड़ा या बहुत कुछ भी प्रभाव न दिखा सकी। (सिर्फ) उसने गमनागमन (ही) किया। फिर उसने दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और ऊपर आकाश में उछल गई। फिर वह वहाँ से नी । गिरी और वापिस लौट कर उसी मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को बार-बार जलाती हुई अन्त में उसी के शरीर के भीतर प्रविष्ट हो गई। .
विवेचन—प्रस्तुत दो सूत्रों (७७-७८) में से प्रथम सूत्र में भगवान् द्वारा गोशालक द्वारा आचरित अनार्यकर्म पर उसे दिए गए उपदेश का वर्णन है। द्वितीय सूत्र में बताया गया है कि गोशालक द्वारा भगवान् को मारने के लिए छोड़ी गई तेजोलेश्या उन्हें किञ्चित् क्षति न पहुँचा कर आकाश में उछली और फिर नीचे आकर, लौट कर गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हुई और उसे बार-बार जलाने लगी। अर्थात्—आक्रमणकर्ता गोशालक भगवान् को जलाने के बदले स्वयं जल गया।
कठिन शब्दार्थ—निसिटे समाणे—निकलती हुई। णो कमइ, णो पक्कमइ–थोड़ा या बहुत कुछ भी प्रभाव न दिखा सकी, थोड़ी या बहुत क्षति पहुँचाने में समर्थ न हुई। अंचिअंचियं करेतिगमनागमन किया। उप्पतिए—ऊपर उछली। पडिहए—गिरी। अणुडहमाणे—बार-बार जलाती हुई। क्रुद्ध गोशालक की भगवान् के प्रति मरण-घोषणा, भगवान द्वारा प्रतिवादपूर्वक गोशालक के अन्धकारमय भविष्य का कथन
७९. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं तेयेणं अन्नाइटे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं वदासि—तुमंणं आउसो ! कासवा ! मम तवेणं तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि।
[७९] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक अपने तेज (तेजोलेश्या) से स्वयमेव पराभूत हो गया। अत: (क्रुद्ध होकर) श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहने लगा—'आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभूत होकर पित्तज्वर से ग्रस्त शरीर वाले होकर दाह की पीडा से छह मास के अन्त में छद्मस्थ
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू.पा.टि.) भा. २, पृ. ७१७-७१८ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८३
(ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. ११, पृ. ६६४