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________________ पन्द्रहवाँ शतक ४८९. सुनक्षत्र अनगार को क्षमापना, आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक समाधिमरण का अवसर प्राप्त हो गया था। कठिन शब्दार्थ-आरुभेति—आरोपित किया, नये सिरे से पंच महाव्रत का उच्चारण करके स्वीकार किया। समाहिपत्ते-समाधिमरण को प्राप्त हुए। परिताविए—पीडित कर दिया, जला दिया। गोशालक को भगवान् का सदुपदेश, क्रुद्ध गोशालक द्वारा भगवान् पर फेंकी हुई तेजोलेश्या से स्वयं का दहन ७७. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी–जे वि ताव गोसाला ! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स० वा, तं चेव जाव पज्जुवासति किमंग पुण गोसाला ! तुमं मए चेव पव्वाविए जाव मए चेव बहुस्सुतीकते ममं चेव मिच्छं विप्पडिवन्ने ?, तं मा एवं गोसाला ! जाव नो अन्ना। [७७] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने, मंखलीपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा—'गोशालक ! जो तथारूप श्रमण या.माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि पूर्ववत्, वह भी उसकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या ? मैंने तुझे प्रव्रजित किया, यावत् मैंने तुझे बहुश्रुत बनाया, अब मेरे साथ ही तूने इस प्रकार का मिथ्यात्व (अनार्यत्व) अपनाया है। गोशालक ! ऐसा मत कर। ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है । यावत्-तू वही है, अन्य नहीं है। तेरी वही प्रकृति है, अन्य नहीं। ७८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ तेयासमुग्धातेणं समोहन्नइ, तेया० स० २ सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, स० प० २ समणस्स भगवतो महावीरस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति। से जहानामए वाउक्कलिया इ वा वायमंडलिया इ वा सेलंसि वा कुड्डंसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवारिज्जमाणी वा निवारिजमाणी वा सा णं तत्थ णो कमति, नो पक्कमति, एवामेव गोसालस्स वि मंखलिपुत्तस्स तवे तेये समणस्स भगवतो महावीरस्स वहाए सरीरगंसि निसिढे समाणे से णं तत्थ नो कमति, नो पक्कमति, अंचिअंचियं करेति, अंचि० क० २ आयाहिणपयाहिणं करेत्ति, आ० क० २ उड्ढं वेहासं उप्पतिए।से णंतओ पडिहए पडिनियत्तमाणे तमेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे अणुडहमाणे अंतो अंतो अणुप्पविठे। [७८] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशालक पुनः एकदम क्रुद्ध हो उठा। उसने क्रोधावेश में तैजस समुद्घात किया। फिर वह सात-आठ कदम पीछे हटा और श्रमण भगवान् १. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४३३ ___(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ७१७ २. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २४३३ ।। (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. ११, पृ. ६५९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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