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पन्द्रहवाँ शतक
अवस्था में ही काल कर जाओगे।'
८०. तणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्त एवं वदासी— नो खलु अहं गोसाला ! तव तवेणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं जाव कालं करेस्सामि, अहं णं अन्नाई सोलस वासाई जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि ! तुमं णं गोसाला ! अप्पणा चेव सएणं तेयेणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि ।
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[८०] इस पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा—' हे गोशालक ! तेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर मैं छह मास के अन्त में, यावत् काल नहीं करूंगा, किन्तु अगले सोलह वर्ष - पर्यन्त जिन अवस्था में गन्ध-हस्ती के समान विचरूंगा। परन्तु हे गोशालक ! तू स्वयं अपनी तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर सात रात्रियों के अन्त में पित्तज्वर से शारीरिक पीडाग्रस्त होकर छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाएगा।'
विवेचन — प्रस्तुत दो सूत्रों में गोशालक द्वारा भगवान् के भविष्यकथन का तथा उसके प्रतिवाद रूप में भगवान् ने अपने दीर्घायुष्य का और गोशालक की मृत्यु का कथन किया है।
कठिन शब्दार्थ :—अन्नाइट्ठे – अनादिष्ट — अभिव्याप्त या पराभूत । दाहवक्कंती – दाह की पीड़ा से । पित्तज्जर-परिगयसरीरे— जिसके शरीर में पित्तज्वर व्याप्त हो गया है, वह । सुहत्थी— अच्छे हाथी की तरह, गन्ध - हस्ती के समान । २
श्रावस्ती के नागरिकों द्वारा गोशालक के मिथ्यावादी और भगवान् के सम्यग्वादी होने का निर्णय
८१. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक् एवं परूवेति — एवं खलु देवाणुप्पिया ! सावत्थीए नगरीय बहिया कोट्ठए चेतिए दुवे जिणा संलवेंति, एगे वदति-तुमं पुव्विं काल करेस्ससि, एगे वदति – तुमं पुव्विं कालं करेस्ससि, तत्थ णं के सम्मावादी के मिच्छावादी ? तत्थ णं जे से अहप्पहाणे जणे से वदति – समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले मंखलीपुत्ते मिच्छावादी ।
[८१] तदनन्तर श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे —— देवानुप्रियो ! श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन (तीर्थंकर) परस्पर संलाप कर रहे हैं । ( उनमें से ) एक कहता है- 'तू पहले काल कर जाएगा।' दूसरा उसे कहता है—'तू पहले मर जाएगा।' इन दोनों में कौन सम्यग्वादी (सत्यवादी) है, कौन मिथ्यावादी है ? उनमें
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं ( मू.पा. टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ७१८
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६८३