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पन्द्रहवाँ शतक
४६७ तए णं तस्स मंखलिस्स०, एवं चेव सव्वं भाणितव्वं जाव अजिणे जिणसई पकासेमाणे विहरति।' तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरति, गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरति। समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरति।"
[६०] तदनन्तर श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक (त्रिकोणमार्ग) यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से यावत् प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! जो यह गोशालक मंखलि-पुत्र अपने-आपको 'जिन' कहता यावत् फिरता है; यह बात मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि उस मंखलिपुत्र गोशालक का 'मंखली' नामक मंख (भिक्षाचर) पिता था। उस समय उस मंखली का ........ इत्यादि पूर्वोक्त समस्त वर्णन; यावत्—वह (गोशालक) जिन नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट करता है। इसलिए मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है। वह 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ, यावत् विचरता है। अतएव वस्तुतः मंखलिपुत्र गोशालक अजिन है, किन्तु जिन-प्रलापी हो कर यावत् विचरता है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'जिन' हैं, 'जिन' कहते हुए यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।
६१. तए णं से. गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आतावणभूमितो पच्चोरुभति, आ० प० २ सावत्थिं नगरि मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० २ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघपरिवुडे महता अमरिसंहमाणे एवं वा वि विहरति।
[६१] जब मंखलिपुत्र गोशालक ने बहुत-से लोगों से यह बात सुनी, तब उसे सुनकर और अवधारण करके वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, यावत् मिसमिसाहट करता (क्रोध से दांत पीसता) हुआ आतापनाभूमि से नीचे उतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान पर आया। वह हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान पर आजीविकसंघ से परिवृत हो (घिरा रह) कर अत्यन्त अमर्ष (रोष) धारण करता हुआ इसी प्रकार विचरने लगा।
विवेचन-क्रुद्ध गोशालक भगवान् को बदनाम करने की फिराक में प्रस्तुत दो सूत्रों में (६०६१) में भगवान् द्वारा गोशालक की वास्तविकता प्रकट किये जाने पर श्रावस्ती के लोगों के मुंह से सुनकर क्रुद्ध गोशालक द्वारा हालाहला कुंभारिन की दूकान पर संघ-सहित, भगवान् को बदनाम करने हेतु आने का वर्णन है।' गोशालक द्वारा अर्थलोलुप-वणिकवर्ग-विनाशदृष्टान्त-कथनपूर्वक आनन्द स्थविर को भगवद्-विनाशकथनचेष्टा
६२. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नाम थेरे पगतिभद्दए जाव विणीए छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। तए णं से आणंदे थेरे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी (स० २ उ० ५ सु० १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २ , पृ. ७०४