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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से जाते ।
[५७] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक मुट्ठी में आवें, इतने उड़द के बाकलों से तथा एक चुल्लूभर पानी से निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) के तपश्चरण के साथ दोनों बांहें ऊँची करके सूर्य के सम्मुख खड़ा रह कर आतापना - भूमि में यावत् आतापना लेने लगा। ऐसा करते हुए गोशालक को छह मास के अन्त में, संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त हो गई।
५८. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छद्दिसाचरा अंतियं पादुब्भवित्था, तं जहा- सोणे, तं चेव सव्वं जाव अजिणे जिणसद्दं पगासेमाणे विहरति । तं नो खलु गोयमा ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव जिणसद्दं पगासेमाणे विहरति । गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति ।
[५८] इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक के पास किसी दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए। इत्यादि सब कथन पूर्ववत्, यावत् — जिन न होते हुए भी अपने आपको जिन शब्द से प्रकट करता हुआ विचरण करने लगा है। अतः हे गौतम ! वास्तव में मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है वह 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रसिद्ध (प्रकट करता हुआ विचरता है। वस्तुतः मंखलिपुत्र गोशालक अजिन (जिन नहीं ) है; जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है ।
५९. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा जहा सिवे (स० ११ उ० ९ सु० २६ ) जाव पडिगया ।
[५९] तदनन्तर वह अत्यन्त बड़ी परिषद् (ग्यारहवें शतक उद्देशक ९, सू. २६ में कथित ) शिवराजर्षि के समान धर्मोपदेश सुन कर यावत् वन्दना - नमस्कार कर वापस लौट गई।
विवेचन—प्रस्तुत तीन सूत्रों (५७-५८-५९) में भगवान् ! गोशालक के जीवनवृत्त का उपसंहार करते हुए निम्नोक्त तथ्यों को उजागर करते हैं- (१) गोशालक ने विधिपूर्वक तपश्चरण करके तेजोलेश्या प्राप्त कर ली। (२) अहंकारवश जिन न होते हुए भी स्वयं को जिन कहने लगा । (३) गोशालक दम्भी है, वह जिन नहीं है, किन्तु जिन - प्रलापी है । (४) एक विशाल परिषद् में भगवान् ने इस सत्य-तथ्य को उजागर किया। भगवान् द्वारा अपने अजिनत्व का प्रकाशन सुन कर कुंभारिन की दूकान पर कुपित गोशालक की ससंघ जमघट
६०. तए णं सावत्थीय नगरीय सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स जाव परूवेइ- " जं णं देवाप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरति तं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवं इक्खतिजावरूवेति 'एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नामं मंखे पिता होत्था ।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ७०४