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पन्द्रहवाँ शतक
४६५ तिलथंभयाओ तं तिलसंगलियं खुडति, खुडित्ता करतलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ। तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ते सत्त तिले गणेमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था— एवं खलु सव्वजीवा वि पउट्टपरिहारं परिहरंति'। एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउट्टे। एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाए अवक्कमणे पन्नत्ते।
[५६] तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन यावत् प्ररूपणा पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। बल्कि उस कथन के प्रति अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करता हुआ वह उस तिल के पौधे के पास पहुँचा और उसकी तिलफली तोड़ी, फिर उसे हथेली पर मसल कर (उसमें से) सात तिल बाहर निकाले। तदनन्तर उस मंखलिपुत्र गोशालक को उन सातों तिलों को गिनते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ— सभी जीव इस प्रकार परिवृत्त्य-परिहार करते हैं (अर्थात्-मर कर पुनः उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं।) हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह परिवर्त (परिवर्त्त-परिहार-वाद) है और हे गौतम ! मुझसे (तेजोलेश्याप्राप्ति की विधि जानने के बाद) मंखलिपुत्र गोशालक का यह अपना (स्वेच्छा से) अपक्रमण (पृथक् विचरण) है।
विवेचन-प्रस्तुत दो सूत्रों (५५-५६) में गोशालक द्वारा भगवान् के साथ मिथ्या-प्रतिवाद करने का तथा भगवान् का कथन सत्य सिद्ध हो जाने पर भी दुराग्रहवश सर्वजीवों के परिवर्त्त-परिहार की मिथ्या मान्यता को लेकर भगवान् से पृथक् विचरण करने का प्रतिपादन है। ___ कठिन शब्दार्थ खुडति—तोडता है। पप्फोडेइ-मसलता है। पउट्टपरिहारं—परिवृत्त होकरउसी (वनस्पति-शरीर) का परिहार-परिभोग (उत्पाद) करते हैं। आयाए-अपने से स्वेच्छा से गोशालक स्वयं, अथवा (तेजोलेश्या प्राप्ति का उपदेश) आदान–ग्रहण करके। अवक्कमणे-अपक्रमण—पृथक् विचरण।
गोशालक का मिथ्या-आग्रह-भगवान् ने बताया था कि वनस्पतिकायिक जीव परिवृत्य-मर कर परिहार करते हैं, अर्थात् मर कर बार-बार पुनः उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु गोशालक ने मिथ्याग्रहवश सभी जीवों के लिए एकान्त रूप से परिवृत्य-परिहारवाद' मान लिया। यह उसकी मिथ्या मान्यता थी। गोशालक को तेजोलेश्या की प्राप्ति, अहंकारवश जिन-प्रलाप एवं भगवान् द्वारा स्ववक्तव्य का उपसंहार
५७. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छटुं छटेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डं बाहाओ पगिझिय जाव विहरइ। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २. प.७०३-७०४ २. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३९७-२३९९
(ख) भगवती. अ. वृ. पत्र ६६६ ३. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३९९