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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मिच्छा, इमं णं पच्चक्खमेव दीसति ‘एस णं से तिलथंभए णो निष्फन्ने, अनिष्फन्नमेव; ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता नो एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायता"। तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वदामि "तुमं णं गोसाला ! तदा ममं एवं आइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमद्वं नो सद्दहसि, नो पत्तियसि, नो रोएसि, एयमढें असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयं णं मिच्छावादी भवतु'त्ति कटु ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसक्कसि, प० २ जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, उ० २ जाव एगंतमंते एडेसि, तक्खणमेत्तं गोसाला ! दिव्वे अब्भवद्दलए पाउब्भूते। तए णं से दिव्वे अब्भवद्दलए खिप्पामेव०, तं चेव जाव तस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलंसंगलियाए सत्त तिला पच्चयाया। तं एस णं गोसाला ! से तिलथंभए निप्फन्ने, णो अनिष्फन्नमेव, ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता। एवं खलु गोसाला ! वणस्सतिकाइया पउट्टपरिहारं परिहरंति।"
[५५] हे गौतम ! इसके पश्चात् किसी एक दिन मंखलीपुत्र गोशालक के साथ मैंने कूर्मग्रामनगर से सिद्धार्थग्रामनगर की ओर विहार के लिए प्रस्थान किया। जब हम उस स्थान (प्रदेश) के निकट आए, जहाँ वह तिल का पौधा था, तब गोशालक मंखलिपुत्र ने मुझ से इस प्रकार कहा—'भगवन् ! आपने मुझे उस समय इस प्रकार कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि हे गोशालक ! यह तिल का पौघा निष्पन्न होगा, यावत् तिलपुष्प के सप्त जीव मर कर सात तिल के रूप में पुनः उत्पन्न होंगे, किन्तु आपकी वह बात मिथ्या हुई, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा उगा ही नहीं और वे तिलपुष्प के सात जीव मर कर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न नहीं हुए।'
हे गौतम ! तब मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा—हे गोशालक ! जब मैंने तुझ से ऐसा कहा था, यावत् ऐसी प्ररूपणा की थी, तब तूने मेरी उस बात पर न तो श्रद्धा की, न प्रतीति की, न ही उस पर रुचि की, बल्कि उक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि न करके तू मुझे लक्ष्य करके कि 'यह मिथ्यावादी हो जाएँ' ऐसा विचार कर मेरे पास से धीरे-धीरे से खिसक गया था और जहाँ वह तिल का पौधा था, वहाँ जा पहुँचा यावत् उस तिल के पौधे को तूने मिट्टी सहित उखाड़ कर एकान्त में फैंक दिया। लेकिन हे गोशालक ! उसी समय आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए यावत् गर्जने लगे, इत्यादि यावत् वे तिलपुष्प तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए हैं। अतः हे गोशालक ! यही वह तिल का पौधा है, जो निष्पन्न हुआ है, अनिष्पन्न नहीं रहा है और वही सात तिलपुष्प के जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकायिक जीव मर-मर कर उसी वनस्पतिकाय के शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं।
५६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमढें नो सदहति ३। एयमढं असद्दहमाणे जाव अरोयेमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छति, उ० २ ततो