________________
४६३
पन्द्रहवाँ शतक
शब्दार्थ—मुणि मुणिए—मुनि, तपस्वी या मुणित-ज्ञातत्व।
संखित्तविउलतेयलेस्से—संक्षिप्त और विपुल दोनों प्रकार की तेजोलेश्या। तेजोलेश्या अप्रयोग काल में संक्षिप्त होती है, जबकी प्रयोगकाल में विपुल हो जाती है।
भीएडरा। सणहाए-नख-सहित। अर्थात्—जिस मुट्ठी के बन्द किये जाने पर अंगुलियों के नख, अंगूठे के नीचे लगें, वह सनखा मुट्ठी (पिण्डिका) कहलाती है। कुम्मासपिंडियाए—आधे भीगे हुए मूंग आदि से अथवा उड़द से भरी (सनख) पिण्डिका (मुट्ठी)।वियडासणं—विकट—(अचित्त) जल, उसका आशय या आश्रय विकटाशय या विकटाश्रय (चुल्लू भर जल) से।।
भगवान् द्वारा गोशालक की रक्षा और तेजोलेश्या विधि-निर्देश—कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि भगवान् ने गोशालक की रक्षा क्यों की? तथा उसे तेजोलेश्या की विधि क्यों बताई ? क्योंकि आगे चलकर गोशालक ने भगवान् के दो शिष्यों को तेजोलेश्या से घात किया तथा भगवान् की भी अपकीर्ति की। इसका समाधान वृत्तिकार इस प्रकार करते हैं-भगवान् दया के सागर थे। उनके मन में गोशालक के प्रति कोई द्वेषभाव या दुर्भाव नहीं था। इसलिए गोशालक की रक्षा की। सुनक्षत्र और सर्वानुभूति, इन दो मुनियों की रक्षा न करने का उनका भाव नहीं था, बल्कि उन्होंने सभी मुनियों से उस समय गोशालक के साथ किसी प्रकार का विवाद न करने की चेतावनी दी थी। फिर उस समय भगवान् वीतराग थे, इसलिए लब्धिविशेष का प्रयोग नहीं करते थे। लब्धिविशेष का प्रयोग छद्मस्थ-अवस्था में ही उन्होंने किया था। लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है और वीतरागअवस्था में प्रमाद हो नहीं सकता, छद्मस्थ-अवस्था में क्षम्य है। उक्त दो मुनियों की रक्षा न कर सकने का एक कारण–अवश्यम्भावी भाव था। अर्थात् — भगवान् को ज्ञात था कि इन मुनियों के आयुष्य का अन्त इसी प्रकार होने वाला है। गोशालक द्वारा भगवान् के साथ मिथ्यावाद, एकान्त परिवृत्यपरिहारवाद की मान्यता और भगवान् से पृथक् विचरण
५५. तए णं अहं गोयमा ! अन्नदा कदायि गोसालेणं मंखलिपुत्तेण सद्धिं कुम्मग्गामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपत्थिए विहाराए। जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वदासि—"तुब्भे णं भंते ! तदा ममं एवं आइक्खह जाव परूवेह'गोसाला ! एस णं तिलथंभए निप्फज्जिस्सति, नो न निष्फ०, तं चेव जाव पच्चायाइस्सति' तं णं
१. भगवती. अ. वृ. पत्र ६६८ २. 'संक्षिप्ता-अप्रयोगकाले, विपुला-प्रयोगकाले तेजोलेश्या-लब्धि-विशेषो यस्य स तथा।'–भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६६८ ३. (क) वही, अ. वृत्ति पत्र ६६८
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३१९-२३९६ तक ४. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६६८