________________
४६२
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
इस प्रकार क्यों कहा—'भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् ! मैं समझ गया ?' इस पर हे गौतम ! मंखलीपुत्र गोशालक से मैंने यों कहा— हे गोशालक ! ज्यों ही तुमने वैश्यायन बालतपस्वी को देखा, त्यों ही तुम मेरे पास से शनैः शनै खिसक गए और जहाँ वैश्यायन बालतपस्वी था, वहाँ पहुँच गए। फिर उसके निकट जाकर तुमने वैश्यायन बालतपस्वी से इस प्रकार कहा— क्या आप तत्त्वज्ञ मुनि हैं अथवा जुओं के शय्यातर हैं ? उस समय वैश्यायन बालतपस्वी ने तुम्हारे उस कथन का आदर नहीं किया ( सुना-अनसुना कर दिया) और न ही उसे स्वीकार किया, बल्कि वह मौन रहा। जब तुमने दूसरी और तीसरी बार भी वैश्यायन बालतपस्वी को उसी प्रकार कहा; तब वह एकदम कुपित हुआ, यावत् वह पीछे हटा और तुम्हारा वध करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या निकाली। हे गोशालक ! तब मैंने तुझ पर अनुकम्पा करने के लिए वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेलोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए अपने अन्तर से शीतल तेजोलेश्या निकाली; यावत् उससे उसकी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ जान कर तथा तेरे शरीर को किंचित् भी बाधा - पीड़ा या अवयवक्षति नहीं हुई, देखकर उसने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली। फिर मुझे इस प्रकार कहा— 'भगवन् ! मैं जान गया, भगवन् ! मैंने भलीभांति समझ लिया । '
५४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमट्टं सोच्चा निसम्म भीए जाव संजायभये ममं वंदति नम॑सति, ममं वं० २ एवं वयासी— कहं णं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयामि — जे णं गोसाला ! एगाए सणहाय कुम्मासपिंडिया एगेण य वियडासएणं छट्ठछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढ बाहाओ पगिज्झिय परिज्झिय जाव विहरइ से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवति । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमट्ठं सम्मं विणएणं पडिस्सुणेति ।
[५४] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक मेरे (मुख) से यह (उपर्युक्त) बात सुनकर और अवधारण करके डरा; यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार बोला- 'भगवन् ! संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त (उपलब्ध) होती है ? ' हे गौतम ! तब मैंने मंखलीपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा'गोशालक ! नखसहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें तथा एक विकटाशय (चुल्लू भर ) जल (अचित्त पानी) से निरन्तर छठ - छठ (बेले-बेले के) तपश्चरण के साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर यावत् आतापना लेता रहता है, उस व्यक्ति को छह महीने के अन्त में संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है।' यह सुनकर मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन को विनयपूर्वक सम्यक् रूप से स्वीकार किया ।
विवेचन — प्रस्तुत दो सूत्रों (५३-५४) में दो तथ्यों का प्रतिपादन किया है— (१) गोशालक को ज्ञात हो गया कि मुझ पर वैश्यायन बालतपस्वी द्वारा किये गए उष्णतेजोलेश्या के प्रहार को भगवान् ने अपनी शीत तेजोलेश्या द्वारा शान्त कर दिया, (२) संक्षिप्तविपुल तेजोलेश्या की प्राप्ति की विधि बतला कर गोशालक की जिज्ञासा का समाधान किया ।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ७०९