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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ४५८ ऐसी बात नहीं है और ये सात तिल के फूल मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में (पुनः) उत्पन्न होंगे। ४७. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयमट्ठे नो सद्दहति, नो पत्तियति, नो रोएइ; एयमठ्ठे असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयं णं मिच्छावादी भवतु ' त्ति कट्टु ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, स० प० २ जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छति, उ० २ तं तिलथंभगं सलेड्डु यायं चेव उप्पाडेइ, उ० २ एगंते, एडेति, तक्खणमेत्तं च णं गोयमा ! दिव्वे अब्भबद्दलए पाउब्भूए । तए णं से दिव्वे अब्भवद्दलए खिप्पमेव पतणतणाति, खिप्पा० २ खिप्पामेव पविज्जुयाति, खि० प० २ खिप्पामेव नच्चोदगं नातिमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति जेणं से तिलथंभए आसत्थे पच्चायाते बद्धमूले तत्थेव पतिट्ठिए । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तस्सेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता । [४७] इस पर मेरे द्वारा कही गई इस बात पर मंखलिपुत्र गोशालक ने न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न रुचि की। इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ, "मेरे निमित्त से यह मिथ्यावादी (सिद्ध) हो जाएँ, ऐसा सोच कर गोशालक मेरे पास से धीरे धीरे पीछे खिसका और उस तिल के पौधे के पास जाकर उस तिल के पौधें को मिट्टी सहित समूल उखाड़ कर एक ओर फेंक दिया। पौधा उखाड़ने के बाद तत्काल आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए। वे बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गर्जने लगे । तत्काल बिजली चमकने लगी और अधिक पानी और अधिक मिट्टी का कीचड़ न हो, इस प्रकार से कहीं-कहीं पानी की बूंदाबांदी होकर रज और धूल को शान्त करने वाली दिव्य जलवृष्टि हुई; जिससे तिल का पौधा वहीं जम गया। वह पुन: उगा और बद्धमूल होकर वहीं प्रतिष्ठित हो गया और वे सात तिल के फूलों के जीव मर कर पुन: उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए। विवेचन — भगवान् को मिथ्यावादी सिद्ध करने की गोशालक की कुचेष्टा — प्रस्तुत दो सूत्रों (४६-४७) में भगवान् ने बताया है कि गोशालक ने एक तिल के पौधे को लेकर उसकी निष्पत्ति के विषय में पूछा। मैंने यथातथ्य उत्तर दिया किन्तु मुझे झूठा सिद्ध करने हेतु उसने पौधा उखाड़ कर दूर फेंक दिया । किन्तु संयोगवश वृष्टि हुई, उससे वह तिल का पौधा पुनः जम गया, आदि वर्णन यहाँ किया गया है। यह कथन गोशालक की अयोग्यता सिद्ध करता है । " कठिन शब्दार्थ –अप्पवुट्ठियंसि — अल्प शब्द यहाँ अभावार्थक होने से वृष्टि का अभाव होने से, यह अर्थ उपयुक्त है। संपट्ठिए विहाराए— विहार के लिए प्रस्थान किया। तिलथंभए— तिल का स्तबक, पौधा । पढमसरदकालसमयंसि—प्रथम शरत्काल के समय में । सैद्धान्तिक परिभाषानुसार शरत्काल के दो मास माने जाते हैं— मार्गशीर्ष और पौष । इन दोनों में से प्रथम शरत्काल - मार्गशीर्ष मास कहलाता है । हरियग १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भा. २, पृ. ६९९-७००
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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