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________________ ४५९ पन्द्रहवाँ शतक रेरिज्जमाणे- -हरा या हरा-भरा होने से अत्यन्त सुशोभित । निप्फज्जिस्सति —— निपजेगा, उगेगा। तिलसंगलियाए— तिल की फली में । पविरल-पप्फुस्सियं थोड़े या हलके स्पर्श वाले, अथवा थोड़े-से फुहारे । अब्भ-वद्दलए —-आकाश के बादल । ममं पणिहाए— मेरे आश्रय — निमित्त से । पच्चोसक्कइ—पीछे हटा, या खिसका। सणियं सणियं— धीरे-धीरे । रयरेणुविणासणं- रज (वायु के द्वारा आकाश में उड़ कर छाई हुई धूल के कण तथा रेणु (भूमिस्थित धूल के कण ), दोनों का विनाशक- शान्त करने वाला । पतणतणातिप्रकर्ष रूप से—जोर से तनतनाया गर्जा । आसत्थे — स्थित हुए । ' मौन का अभिग्रह, फिर प्रश्न का उत्तर क्यों ? – यद्यपि भगवान् ने मौन रहने का अभिग्रह किया था किन्तु एकाध प्रश्न का उत्तर देना उनके नियम के विरुद्ध न था । याचनी आदि भाषा बोलना खुला था । इसलिए गोशालक के प्रश्न का उत्तरं दिया । वैश्यायन के साथ गोशालक की छेड़खानी, उसके द्वारा तेजोलेश्याप्रहार, गोशालकरक्षार्थ भगवान् द्वारा शीतलेश्या द्वारा प्रतीकार ४८. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि । [४८] तदनन्तर, हे गौतम! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया । T ४९. तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छट्टं छट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिया पगिझिया सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरति, आदिच्चतेयतवियाओ य से छप्पदाओ सव्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पाण-भूय-जीवसत्तदयट्टयाए च णं पडियाओ पडियाओ तत्थेव तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चोरुभेति । [४९] उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक एक बालतपस्वी निरन्तर छठ-छठ तपः कर्म करने के साथ-साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर सूर्य के सम्मुख खड़ा होकर आतापनभूमि में आतापना ले रहा । सूर्य की गर्मी से तपी हुई जूएँ (षट्पदिकाएँ) चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थीं और वह तपस्वी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की दया के लिए बार-बार पड़ती (गिरती हुई उन जूओं को उठा कर बार-बार वहीं की वहीं (मस्तक पर रखता जाता था । था। ५०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सिं पासति पा० २ ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चीसक्कति, ममं० पा० २ जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तणेव उवागच्छति, उवा० २ वेसियाणं बालतवस्सिं एवं वयासी — किं भवं मुणी मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायरए ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिषुत्तस्स एयमट्ठ णो आढाति नो परिजाणति, तुसिणीए १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६६२ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३८८ से २३९०
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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