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पन्द्रहवाँ शतक
रेरिज्जमाणे- -हरा या हरा-भरा होने से अत्यन्त सुशोभित । निप्फज्जिस्सति —— निपजेगा, उगेगा। तिलसंगलियाए— तिल की फली में । पविरल-पप्फुस्सियं थोड़े या हलके स्पर्श वाले, अथवा थोड़े-से फुहारे । अब्भ-वद्दलए —-आकाश के बादल । ममं पणिहाए— मेरे आश्रय — निमित्त से । पच्चोसक्कइ—पीछे हटा, या खिसका। सणियं सणियं— धीरे-धीरे । रयरेणुविणासणं- रज (वायु के द्वारा आकाश में उड़ कर छाई हुई धूल के कण तथा रेणु (भूमिस्थित धूल के कण ), दोनों का विनाशक- शान्त करने वाला । पतणतणातिप्रकर्ष रूप से—जोर से तनतनाया गर्जा । आसत्थे — स्थित हुए । '
मौन का अभिग्रह, फिर प्रश्न का उत्तर क्यों ? – यद्यपि भगवान् ने मौन रहने का अभिग्रह किया था किन्तु एकाध प्रश्न का उत्तर देना उनके नियम के विरुद्ध न था । याचनी आदि भाषा बोलना खुला था । इसलिए गोशालक के प्रश्न का उत्तरं दिया ।
वैश्यायन के साथ गोशालक की छेड़खानी, उसके द्वारा तेजोलेश्याप्रहार, गोशालकरक्षार्थ भगवान् द्वारा शीतलेश्या द्वारा प्रतीकार
४८. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि । [४८] तदनन्तर, हे गौतम! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया ।
T ४९. तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छट्टं छट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिया पगिझिया सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरति, आदिच्चतेयतवियाओ य से छप्पदाओ सव्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पाण-भूय-जीवसत्तदयट्टयाए च णं पडियाओ पडियाओ तत्थेव तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चोरुभेति ।
[४९] उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक एक बालतपस्वी निरन्तर छठ-छठ तपः कर्म करने के साथ-साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर सूर्य के सम्मुख खड़ा होकर आतापनभूमि में आतापना ले रहा । सूर्य की गर्मी से तपी हुई जूएँ (षट्पदिकाएँ) चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थीं और वह तपस्वी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की दया के लिए बार-बार पड़ती (गिरती हुई उन जूओं को उठा कर बार-बार वहीं की वहीं (मस्तक पर रखता जाता था ।
था।
५०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सिं पासति पा० २ ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चीसक्कति, ममं० पा० २ जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तणेव उवागच्छति, उवा० २ वेसियाणं बालतवस्सिं एवं वयासी — किं भवं मुणी मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायरए ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिषुत्तस्स एयमट्ठ णो आढाति नो परिजाणति, तुसिणीए
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६६२
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३८८ से २३९०