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पन्द्रहवाँ शतक
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नमन करके भगवान् के समक्ष स्वयं को शिष्य रूप में समर्पित कर दिया। भगवान् ने भी उसे स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् गोशालक के साथ भगवान् ६ वर्ष तक विचरण करते रहे। यहाँ तक का वृतान्त भगवान् ने फरमाया है।
__ भावी अनेक अनर्थों के कारणभूत अयोग्य गोशालक को भगवान् ने क्यों शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया ? इस प्रश्न का समाधान टीकाकार यों करते हैं—उस समम तक भगवान् पूर्ण वीतराग नहीं हुए थे, अतएव परिचय के कारण उनके हृदय में स्नेहगर्भित अनुकम्पा उत्पन्न हुई, छद्मस्थ होने से भविष्यत्कालीन दोषों की ओर उनका उपयोग नहीं लगा अथवा अवश्य भवितव्य ऐसा ही था, इससे उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया।
कठिन शब्दार्थ—मग्गणगवेसणं—मार्गण—शोध-खोज और गवेषण पूछताछ या पता लगाना, ढंढना। महघयसंजत्तेणं-मध (शक्कर) और घी से यक्त। खज्जगविहीए खाजे की भोजनविधि से। परमन्नेणं--परमान्न,खीर से।आयामेत्था -आचमन कराया।पणीयभमीय-(१) पणितभमि-भाण्डविश्रामस्थान—भण्डोपकरण रख कर विश्राम लेने का स्थान, अथवा प्रणीत भूमि -मनोज्ञ भूमि। सउत्तरोनेंदाढ़ी-मूंछ सहित मस्तक के केशों का। पडिसुणेमि—मैंने स्वीकार (समर्थन) किया। गोशालक द्वारा तिल के पौधे को लेकर भगवान् को मिथ्यावादी सिद्ध करने की कुचेष्टा
४६. तए णं अहं गोयमा ! अन्नदा कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पवुट्टिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं सिद्धत्थगामाओ नगराओ कुम्मग्गामं नगरं संपट्ठिए विहाराए। तस्स णं सिद्धत्थग्गामस्स नगरस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स य अंतरा एत्थ णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुष्फिए हरियगरिजमाणे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठति। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तं तिलथंभगं पासति, पा० २ ममं वंदति नमंसति, वं० २ एवं वदासी-एसं णं भंते ! तिलथंभए किं निप्फज्जिस्सति, नो निष्फज्जिस्सति ? एते य सत्त तिलपुप्फजीचा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कहिं गच्छिहिंति ? कहिं उववन्जिहिंति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी—गोसाला ! एस णं तिलथंभए निप्फजिस्सति, नो न निष्फज्जिस्सइ, एए य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाइस्संति।
[४६] तदनन्तर, हे गौतम ! किसी दिन प्रथम शरत्-काल के समय, जब वृष्टि का अभाव था; मंखलिपुत्र गोशालक के साथ सिद्धार्थग्राम नामक नगर से कूर्मग्राम नामक नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थान कर चुका था। उस समय सिद्धार्थग्राम और कूर्मग्राम के बीच में तिल का एक बड़ा पौधा था, जो पत्र-पुष्प युक्त था, हरीतिमा (हराभरा होने) की श्री (शोभा) से अतीव शोभायमान हो रहा था। गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा। फिर मेरे पास आकर वन्दन-नमस्कार करके पूछा- भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न (उत्पन्न) होगा या नहीं? इन सात तिलपुष्पों के जीव मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? इस पर हे गौतम ! मैंने मंखलीपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा—गोशालक ! यह तिलस्तवक (तिल का पौधा) निष्पन्न होगा। नहीं निष्पन्न होगा, १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ. ६९५ से ६९८ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६६४ ३. भगवती. (हिन्दीविवेचन), भा. ५ पृ. २३८२ से २३८७