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________________ ४५६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र महावीरस्स इड्डी जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नगाए नो खलु अत्थि तारिसिया अन्नस्सकस्सइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्डी जुती जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागते, तं निस्संदिद्धं णं 'एत्थं ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे भविस्सति' त्ति कटु कोल्लाए सन्निवेसे सब्भिंतर बाहिरिए ममं सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेति। ममं सव्वओ जाव करेमाणे कोल्लागस्स सन्निवेसस्स बहिया परियभूमीए मए सद्धिं अभिसमन्नगए। [४२] उस समय बहुत-से लोगों से इस (पूर्वोक्त) बात को सुन कर एवं अवधारण करके उस मंखलिपुत्र गोशालक के हृदय में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ—मेरे धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य तथा पुरुषकार-पराक्रम आदि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुए हैं, वैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम आदि अन्य किसी भी तथारूप श्रमण या माहन को उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत नहीं हैं। इसलिए निःसन्देह मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे, ऐसा विचार करके कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर और भीतर सब ओर मेरी शोध—खोज करने लगा। सर्वत्र मेरी खोज करते हुए कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर के भाग की मनोज्ञ भूमि में मेरे साथ उसकी भेंट हुई। ४३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हट्ठतुट्ठ० ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वदासी—'तुब्भे णं भंते ! मम धम्मायरिया, अहं णं तुब्भं अंतेवासी। [४३] उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर तीन बार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा— भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका अन्तेवासी (शिष्य) हूँ। ४४. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं पडिसुणेमि। [४४] तब हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात को स्वीकार किया। ४५. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं पणियभूमिए छव्वासाइं लाभं अलाभं सुखं दुक्खं सक्कारमसक्कारं पच्चणुभवमाणे अणिच्चजागरियं विहरित्था। ___[५] तत्पश्चात् हे गौतम ! मैं मंखलिपुत्र गोशालक के साथ उस प्रणीत भूमि में (प्रदेश में) छह वर्ष तक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करता हुआ अनित्यता-जागरिका (अनित्यता का अनुप्रेक्षण) करता हुआ विहार करता रहा। विवेचन—प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. ३० से ४५ तक) में भगवान् ने अपने द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ मास-खमण के पारणे का पूर्ववत् वर्णन किया है। इधर चतुर्थ मासखमण का पारणा बहुल ब्राह्मण के यहाँ हुआ, उधर गोशालक भ. महावीर को तन्तुवायशाला में न देखकर ढूँढता-ढूँढता थक गया तब पुनः तन्तुवायशाला में आया। उसने अपने समस्त उपकरण ब्राह्मणों को दान में दे दिये और दाढ़ी, सिर आदि के सब केश मुंडवा कर भगवान् की खोज में निकला। कोल्लाक-सन्निवेश बाहर बहुल ब्राह्मण की प्रशंसा सुन कर अनुमान लगाया कि यहीं भगवान् महावीर होने चाहिए। वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर भगवान् से मिला। गोशालक ने वन्दन
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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