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________________ ४५२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र २७. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावती, कतत्थे णं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावती, कयपुन्ने णं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावती, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावती, कया णं लोया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहावतिस्स, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावतिस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधु साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइं पंच दिव्वाइं पादुब्भूयाई, तं जहा—वसुधारा वुट्ठा जाव अहो दाणे घुटे। तं धन्ने कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावतिस्स, विजयस्स गाहावतिस्स। ___ [२७] उस समय राजगृह नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क मार्गों यावत् राजमार्गों में बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति धन्य है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतार्थ है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतपुण्य (पुण्यशाली) है, देवानुप्रियो। विजय गाथापति कृतलक्षण (उत्तम लक्षणों वाला) है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति के उभयलोक सार्थक हैं और विजय गाथापति का मनुष्य जन्म और जीवन रूप फल सुलब्ध (प्रशंसनीय) है कि जिसके घर में तथारूप सौम्यरूप साधु (उत्तम श्रमण) को प्रतिलाभित करने से ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं। यथा-वसुधारा की वृष्टि यावत् 'अहोदान, अहोदान' की घोषणा हुई है। अत: विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है। उसके दोनों लोक सार्थक हैं। विजय गाथापति का मानव जन्म एवं जीवन सफल है—प्रशंसनीय है। २८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावतिस्स गिहे तेणेव उवागच्छति, ते उवा०२ पासति विजयस्स गाहावतिस्स गिहंसि वसुधारं वुटुं, दसद्धवण्णं कुसुमं निविडियं। ममं च णं विजयस्स गाहावतिस्स गिहाओ पडिनिक्खममाणं पासति, पासित्ता हट्टतुट्ठ० जेणेव ममं अंतियं तेणेव उवागच्छति, उवा० २ ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, क० २ ममं वंदति नमसंति, वं० २ ममं एवं वयासी—तुब्भे णं भंते ! ममं धम्मायरिया, अहं णं तुब्भ धम्मंतेवासी। । [२८] उस अवसर पर मंखलिपुत्र गोशालक ने भी बहुत-से लोगों से यह बात (घटना) सुनी और समझी। इससे उसके मन में पहले संशय और फिर कौतुहल उत्पन्न हुआ। वह विजय गाथापति के घर आया। फिर उसने गाथापति के घर में बरसी हुई वसुधारा तथा पांच वर्ण के निष्पन्न कुसुम भी देखे। उसने मुझे (श्रमण भ. महावीर को) भी विजय गाथापति के घर से बाहर निकलते हुए देखा। यह देखकर वह (गोशालक) हर्षित और सन्तुष्टं हुआ। फिर मेरे पास आकर उसने तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया। तदनन्तर वह मुझसे इस प्रकार बोला—'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्म-शिष्य हूँ।' ___ २९. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमढे नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि। . [२९] हे गौतम ! इस पर मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया, उसे स्वीकार नहीं किया। मैं मौन रहा।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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