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________________ पन्द्रहवाँ शतक ४५१ विजय गाथापतिगृह में भगवत्पारणा, पंचदिव्यप्रादुर्भाव, गोशालक द्वारा प्रभावित होकर भगवान् के शिष्य बनाने का वृतान्त २४. तए णं अहं गोयमा ! पढममासक्खमणपारणगंति तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तंतु० प० २ णालंद बाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, ते० उवा० २ रायगि नगरे उच्च-नीय जाव अडमाणे विजयस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविट्ठे । [२४] तदनन्तर, हे गौतम! मैं प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुवायशाला से निकला और फिर नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में आया । वहाँ ऊँच नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करतें हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया। २५. तए णं से विजये गाहावती ममं एज्जमाणं पासति पा० २ हट्टतुट्ट० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेति खि० अ० २ पादपीढाओ पच्चोरुभति, पाद० प० २ पाउयाओ ओमुयइ, पा० ओ० २ एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, एग० क० २ अंजलिमउलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई अणुगच्छति, अ० २ तिक्खु आयाहिणपयाहिणं करेति, क० २ ममं वंदति नम॑सति, ममं वं० २ ममं विउलेणं असण पाण- खाइम- साइमेणं 'पडिलाभेस्सामि' त्ति कट्टु तुट्ठे, पडिलाभेमाणे वि तुट्ठे, पडिलाभिते ि तुट्ठे । [ २५ ] उस समय विजय गाथापति (अपने घर के निकट) मुझे आते हुए देख अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। वह शीघ्र ही अपने सिंहासन से उठा और पादपीठ से नीचे उतरा। फिर उसने पैर से खड़ाऊँ निकाली। एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। दोनों हाथ जोड़ कर सात-आठ कदम मेरे सम्मुख आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया। फिर वह ऐसा विचार करके अत्यन्त संतुष्ट हुआ कि मैं आज भगवान् को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप (चतुर्विध) आहार से प्रतिलाभूंगा । वह प्रतिलाभ लेता हुआ भी संतुष्ट हो रहा था और प्रतिलाभित होने के बाद भी सन्तुष्ट रहा। २६. तए णं तस्स विजयस्स गाहावतिस्स तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, संसारे परित्तीकते, गिहंति य से इमाई पंच दिव्वाई पादुब्भूयाई, तं जहा - वसुधारा वुट्ठा १, दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिते २, चेलुक्खेवे कए ३, आहयाओ देवदुंदुभीओ ४, अंतरा वि य णं आगासे 'अहो ! दाणे, अहो ! दाणे' त्ति घुट्ठे ५। [ २६] उस अवसर पर उस विजय गाथापति ने उस दान में द्रव्यशुद्धि से, दायक (दाता की ) शुद्धि से और पात्रशुद्धि के कारण तथा तीन करण— मन-वचन-काया और कृत, कारित और अनुमोदित की शुद्धिपूर्वक मुझे प्रतिलाभित करने से उसने देव का आयुष्य-बन्ध किया, संसार परिमित (परित्त) किया। उसके घर में ये पांच दिव्य प्रादुर्भूत (प्रकट) हुए, यथा— (१) वसुधारा की वृष्टि, (२) पांच वर्णों के फूलों की वृष्टि, (३) ध्वजारूप वस्त्र की वृष्टि, (४) देवदुन्दुभि का वादन और (५) आकाश में 'अहो दानम्, अहो दानम्' की घोषणा ।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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