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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ राजगृह नगर में नालन्दा पाड़ा के बाहर, जहाँ तन्तुवायशाला ( जुलाहों की बुनकरशाला ) थी, वहाँ आया । फिर उस तन्तुवायशाला के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह करके मैं वर्षामास के लिए रहा। तत्पश्चात् हे, गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण ( तप) स्वीकार करके कालयापन करने लगा ।
२३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेण अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जाव दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालंदाबाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उवा० २ तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेइ, भंड० क० २ रायगिहे नगरे उच्च-नीय जाव अन्नत्थ कत्थयि वसहिं अलभमाणे तीसे व तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागते जत्थेव णं अहं गोयमा !
[२३] उस समय वह मंखलिपुत्र गोशालक चित्रफल हाथ में लिए हुए मंखपन से (चित्रपट - अंकित चित्र दिखा कर) आजीविका करता हुआ, क्रमशः विचरण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगृह नगर में नालंदा पाड़ा के बाहरी भाग में, जहाँ तन्तुवायशाला थी, वहाँ आया। फिर उस तन्तुवायशाला के एक भाग में उसने अपना भाण्डोपकरण (सामान) रखा। तत्पश्चात् राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुल में भिक्षाटन करते हुए उसने वर्षावास के लिए दूसरा स्थान ढूंढने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उसे अन्यत्र कहीं भी निवासस्थान नहीं मिला, तब उसी तन्तुवायशाला के एक भाग में, हे गौतम! जहाँ मैं रहा हुआ था, वहीं, वह भी वर्षावास के लिए रहने लगा ।
विवेचन — प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. २१-२२-२३) में भगवान् महावीर ने अपने श्रीमुख से गोशालक के साथ प्रथम समागम का वृतान्त प्रस्तुत किया है ।
कठिन शब्दार्थ — देवत्ते गतेहिं— देवलोक हो जाने पर। अणगारियं पव्वइए - अनगारधर्म में प्रव्रजित हुआ। अद्धमासं अद्धमासेणं खममाणे – अर्द्धमास (पक्ष), अर्द्धमास का तप करते हुए। पढमं अंतरवासंप्रथम वर्ष के अन्तर — अवसर पर वासावासं — वर्षावास (चातुर्मास ) के लिए । णिस्साए - निश्रा से आश्रय लेकर । उवागए— आया । तंतुवायसाला — बुनकर शाला ।
प्रथम समागम - वृतान्त - (१) माता-पिता के दिवंगत हो जाने के बाद अनगार धर्म में प्रव्रजित होने का वृतान्त (२) दीक्षा लने के बाद अर्द्धमासक्षमण तप करते हुए प्रथम वर्षावास अस्थिक ग्राम में बिताया। द्वितीय वर्षावास मास-मास क्षमण तप करते हुए राजगृह में नालन्दा पाड़ा के बाहर स्थित तन्तुवायशाला में बिता रहे थे । (३) उस समय मंखलीपुत्र गोशालक अपनी मंखवृत्ति से आजीविका करता हुआ घूमता- घूमता राजगृह में, अन्यत्र कोई अच्छा स्थान न मिलने से उसी तन्तुवायशाला में आकर रह गया । यहीं भगवान् के साथ गोशालक का प्रथम समागम हुआ ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६६३
(ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन), भा. ५ पृ. २३७७
२. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, ( मू.पा. १९) पृ. ६९३-६९४