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पन्द्रहवाँ शतक
कुंभारावणंसि आजीवियसंपरिवुडे आजीवियसमयेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।
[५] उस काल उस समय में चौवीस वर्ष दीक्षापर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला कुम्भारिन की कुम्भकारापण (मिट्टी के बर्तनों की दूकान) में आजीवकसंघ से परिवृत होकर आजीविकसिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता था ।
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विवेचन — प्रस्तुत चार सूत्रों में आजीविकसम्प्रदायाचार्य मंखलीपुत्र गोशालक के चरित के सन्दर्भ में श्रावस्ती नगरी की आजीविकसम्प्रदाय की परम उपासिका हालाहला कुंभारिन का संक्षिप्त परिचय देते हुए श्रावस्तीस्थित उसकी दूकान में गोशालक के आजीविकसंघसहित निवास करने का वर्णन किया गया है। गोशालक का छह दिशाचरों को अष्टांगमहानिमित्तशास्त्र का उपदेश एवं सर्वज्ञादि अपलाप
६. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छद्दिसाचरा अंतियं पादुब्भवित्था, तं जहा- सोणे कणंदे कणियारे अच्छिद्दे अग्गिवेसायणे अज्जुणे गोमायु (गोयम) पुत्ते ।
[६] तदनन्तर किसी दिन उस मंखलिपुत्र गोशालक के पास ये छह दिशाचर आए (प्रादुर्भूत हुए), यथा— (१) शोण, (२) कनन्द, (३) कर्णिकार, (४) अच्छिद्र, (५) अग्निर्वैश्यायन और (६) गौतम (गोमायु) - पुत्र अर्जुन |
७. तए णं ते छद्दिसाचरा अट्ठविहं पुव्वगयं मग्गदसमं सएहिं सएहिं मतिदंसणेहिं निज्जूहंति, स० निज्जूहित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उवट्टाइंसु ।
[७] तत्पश्चात् उन छह दिशाचरों ने पूर्वश्रुत में कथित अष्टांग निमित्त, (नौवें गीत - ) मार्ग तथा दसवें ( नृत्य ) मार्ग को अपने-अपने मति - दर्शनों से पूर्वश्रुत में से उद्धृत किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के पास उपस्थित (शिष्यभाव से दीक्षित) हुए।
८. तए णं. से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अट्टंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेण सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं इमाई छ अणतिक्कमणिज्जाइं वागरणाई वागरेति, तं जहा – लाभं अलाभ सुहं दुक्खं जीवितं मरणं तहा ।
[८] तदनन्तर वह मंखलिपुत्र गोशालक, उस अष्टांग महानिमित्त के किसी उपदेश (उल्लोकमात्र) द्वारा सर्व प्राणों, सभी भूतों, समस्त जीवों और सभी सत्त्वों के लिए इन छह अनतिक्रमणीय (जो अन्यथा— असत्य न हों, ऐसी) बातों के विषय में उत्तर देने लगा। वे छह बातें ये हैं— (१) लाभ, (२) अलाभ, (३) सुख, (४) दु:ख, (५) जीवन और (६) मरण ।
९. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अट्टंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. २, पृ. ६८९