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________________ ४४४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नगरीए अजिणे जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली केवलिप्पलावी, असव्वणू सव्वणुप्पलावी, अजिणे जिणसदं पगासेमाणे विहरति। [९] और तब मंखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महा-निमित्त के स्वल्प उपदेशमात्र से श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुए भी, 'मैं जिन हूँ' इस प्रकार प्रलाप करता हुआ, अर्हन्त न होते हुए भी, 'मैं अर्हत् हूँ', इस प्रकार का बकवास करता हुआ, केवली न होते हुए भी, 'मैं केवली हूँ', इस प्रकार का मिथ्याभाषण करता हुआ, सर्वज्ञ न होते हुए भी मैं सर्वज्ञ हूँ', इस प्रकार का मृषाकथन करता हुआ और जिन न होते हुए भी अपने लिए 'जिनशब्द' का प्रयोग करता हुआ विचरता था। विवेचन—आजीविक मत प्रचार-प्रसार के तीन प्रारम्भिक निमित्त प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ६ से ९ तक) में आजीविक-मतीय प्रचार-प्रसार के प्रारम्भिक तीन निमित्त कौन-कौन से बने, इसकी संक्षिप्त झांकी दी है—(१) सर्वप्रथम मंखलीपुत्र गोशालक के पास ६ दिशाचर शिष्यभाव से दीक्षित हुए। (२) तत्पश्चात् अष्टांग महानिमित्त शास्त्र के माध्यम से लोगों को जीवन की छह बातों का उत्तर देना और (३) जिन, अर्हत् आदि न होते हुए भी स्वयं को जिन अर्हत् आदि के रूप में प्रकट करना।' दिशाचर कौन थे ?-वृत्तिकार ने दिशाचर का अर्थ किया है—जो दिशा—मर्यादा में चलते हैं, या विविध दिशाओं में जो विचरण करते हैं और मानते हैं कि हम भगवान् के शिष्य हैं। प्राचीन वृत्तिकार कहते हैं कि ये छह दिशाचर भगवान् के ही शिष्य थे, किन्तु संयम में शिथिल (पासत्थ—पार्श्वस्थ) हो गए थे। चूर्णिकार के मतानुसार ये भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानीय-शिष्यानुशिष्य (पार्खापत्य) थे। अष्टांग महानिमित्त—अष्टविध महानिमित्त इस प्रकार हैं—(१) दिव्य, (२) औत्पात, (३) आन्तरिक्ष, (४) भौम, (५) आंग, (६) स्वर, (७) लक्षण और (८) व्यंजन। कठिन शब्दार्थ—अट्ठविहं पुव्वगयं मग्गदसमं : भावार्थ—पूर्व नामक श्रुतविशेष से उद्धृत अष्टविध निमित्त तथा नवम-दशम दो मार्ग (नवम शब्द यहाँ लुप्त है), अर्थात्-गीतमार्ग (नौवाँ) और नृत्यमार्ग (दसवाँ) । केणई उल्लोयमेत्तेण—किसी उल्लोकमात्र से—उपदेशमात्र से किसी प्रश्न का उत्तर देकर। सएहिं मतिदंसणेहिं—अपनी-अपनी बुद्धि और दृष्टि से प्रमेयवस्तु के विश्लेषण से। निजूहति—निर्वृहण किया—अर्थात्—पूर्वलक्षण श्रुतपर्याय समूह से निर्धारित—उद्धृत किया।उवट्ठाइंसु उपस्थित हुए—उसके शिष्यरूप में आश्रित—दीक्षित हुए। अणइक्कमणिज्जाइं—अनतिक्रमणीय—जिन्हें टाला नहीं जा सकता, ऐसे अनिवार्य । वागरणाइं वागरेति-पुरुषार्थोपयोगी ६ बातों के विषय में पूछने पर यथार्थरूप में उत्तर देता था, १. वियाहपण्णत्ति (मू.पा.टि. युक्त) भा. २, पृ. ६९० २. दिशं—मेरां चरन्ति–यान्ति, मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिक्चरा देशाटा वा। दिक्चरा भगवच्छिष्याः पार्श्वस्थीभूता इति टीकाकारः । पासावच्चिज्जत्ति चूर्णिकारः। -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५९ ३. वही अ. वृत्ति, पत्र ६५९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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