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पण्णरसमंसतं: पन्द्रहवाँ शतक
गोशालक चरित मध्य-मंगलाचरण
१. नमो सुयदेवयाए भगवतीए। [१] भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्र द्वारा शास्त्रकार ने विशालकाय व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का मध्यमंगलाचरण विघ्नोपशमनार्थ किया है। श्रावस्ती निवासी हालाहला का परिचय एवं गोशालक का निवास
२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नगरी होत्था। वण्णओ। [२] उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए।
३. तीसे णं सावत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए, एत्थ णं को?मे नामं चेतिए होत्था। वण्णओ।
[३] उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्व-दिशाभाग में कोष्ठक नामक चैत्य (उद्यान) था। उसक वर्णन पूर्ववत्।
४. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए हालाहला नाम कुंभकारी आजीविओवासिया परिवसति, अड्डा जाव अपरिभूया आजीवियसमयंसि लद्धट्ठा गहितट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ता 'अयमाउसे ! आजीवियसमये अटे, अयं परमटे, सेसे अणडे' त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणी विहरति।
[४] उस श्रावस्ती नगरी में आजीविक (गोशालक) मत की उपासिका हालाहला नाम की कुम्भारिन रहती थी। वह आढ्य (धन आदि से सम्पन्न) यावत् अपरिभूत थी। उसने आजीविकसिद्धान्त का अर्थ (रहस्य) प्राप्त कर लिया था, सिद्धान्त के अर्थ को ग्रहण (स्वीकार या ज्ञात) कर लिया था, उसका अर्थ पूछ लिया था, अर्थ का निश्चय कर लिया था। उसकी अस्थि (हड्डी) और मजा (रग-रग आजीविक मत के प्रति) प्रेमानुराग से रंग गई थी। हे आयुष्मन् ! यह आजीविकसिद्धान्त ही सच्चा अर्थ है, यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ हैं ' इस प्रकार आजीविकसिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करती हुई रहती थी।
५. तेणं कालेणं तेणं समयेणं गोसाले मंखलिपुत्ते चतुवीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए