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पण्णरसमं सयं : पन्द्रहवाँ शतक
गोशालक - चरित
प्राथमिक
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के पन्द्रहवें शतक में गोशालक के जन्म से लेकर भगवान् महावीर के शिष्य बनने, विमुख होने, अवर्णवाद करने तथा तेजोलेश्या से स्वयं दग्ध होने से लेकर अनन्तसंसार परिभ्रमण करने और अन्त में आराधक होकर मोक्ष प्राप्त करने का क्रमशः वर्णन है । एक प्रकार से इस शतक में गोशालक के जीवन के आरोह-अवरोहों द्वारा कर्मसिद्धान्त की सत्यता का प्ररूपण है।
गोशालक के जीवन के पतन का प्रारम्भ तिल के पौधे के भविष्य के सम्बन्ध में भगवान् से पूछ कर उन्हें झुठलाने की कुचेष्टा से प्रारम्भ होता है। फिर एकान्ततः सर्वजीवों के प्रति परिवृत्यवाद की मिथ्या मान्यता को लेकर मिथ्यात्व का — मतमोह का विषवृक्ष बढ़ता ही जाता है, तत्पश्चात् वैश्यायन बालतपस्वी को छेड़ने पर उसके द्वारा गोशालक पर प्रहार की गई तेजोलेश्या का भगवान् ने शीतलेश्या द्वारा निवारण किया, यह जानकर भगवान् से आग्रहपूर्वक तेजोलेश्या का प्रशिक्षण लेने के बाद तेजोलेश्या सिद्ध हो जाने से गोशालक का अहंकार दिनानुदिन बढ़ता गया । अपने पास आनेवाले के जीवनविषयक निमित्तकथन भूत-भविष्यकथन कर देने से उस युग का मूढ समाज गोशालक के प्रति आकर्षित होता जाता था। छह दिशाचर भी गोशालक के इस प्रकार के प्रचार से आकर्षित होकर उसके मत का प्रचार करने लगे ।
ऐसा प्रतीत होता है कि श्रावस्ती नगरी में भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध दोनों का बार-बार आवागमन रहा। इसलिए गोशालक भी श्रावस्ती में हालाहला कुम्भकारी के यहाँ जम कर प्रचार और उत्सूत्रप्ररूपण करने लगा। स्वयं को जिन कहने लगा। गोशालक की तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्धि उसकी वाचालता के कारण भी हुई। उसके अजीविकमतानुयायी बढ़ने लगे, जबकि भगवान् के साधु-साध्वीगण प्रचार कम करते थे, आचार (पंचाचार) में उनका दृढ विश्वास था । यही कारण है कि गोशालक का प्रचार धुंआधार होने से उसकी बात पर लोग विश्वास करने लगे। इस कारण उसके अहं को बल मिला । अत: वह भगवान् के समक्ष भी धृष्ट होकर अपने अहंकार का प्रदर्शन करता रहा और स्वयं भगवान् के समक्ष ही अड़ गया। उनके उपकार को भूल कर स्वयं को छिपाता रहा । अपने पूर्वभव की तथा स्वयं को तीर्थंकर सिद्ध करने की कपोलकल्पित असंगत मान्यताओं का प्रतिपादन करता रहा । भगवान् ने उसे चोर के दृष्टान्तपूर्वक प्रेम से समझाया भी, किन्तु उसक प्रभाव उल्टा ही हुआ। वह भगवान् को मरने-मारने की धमकी देता रहा । भगवान् के दो शिष्यों ने जब गोशालक के समक्ष प्रतिवाद किया, उसे स्वकर्तव्य समझाया तो उसने सुनी-अनसुनी करके उन दोनों को भस्म करने के लिए