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चौदहवाँ शतक : उद्देशक - ८
कठिन शब्दार्थ – दिव्वे — दिव्य, प्रधान । सच्चोवाए - सत्यावपात - जिसकी की गई सेवा सफल होती है । सन्निहियपाडिहेरे — पूर्वभव से सम्बन्धित देव के द्वारा किया गया सान्निध्य । लाउल्लोइयमहिते — जिसका पीठ (चबूतरा ) लीपा - पुता हुआ तथा पूजनीय होगा ।"
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शाल वृक्षादि सम्बन्धी तीन प्रश्न - यद्यपि शालवृक्ष आदि में अनेक जीव होते हैं, तथापि प्रथम जीव की अपेक्षा से ये तीनों प्रश्न किये गए हैं।
अम्बडपरिव्राजक के सात सौ शिष्य आराधक हुए
२१. तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतंवासिसया गिम्हकालसमयंसि एवं जहा उववातिए जाव आराहगा ।
[२१] उस काल, उस समय अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य ( अन्तेवासी) ग्रीष्म ऋतु के समय में विहार कर रहे थे, इत्यादि समस्त वर्णन औपपातिक सूत्रानुसार, यावत् — वे (सभी) आराधक हुए, यहाँ तक कहना चाहिए ।
विवेचन — सात सौ आराधक अम्बड-परिव्राजक शिष्य— औपपातिकसूत्रानुसार संक्षेप में वृतान्त इस प्रकार है— एक बार ग्रीष्मकाल में अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य गंगानदी के दोनों किनारों पर आए हुए काम्पिल्यपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर जा रहे थे। जब उन्होंने अटवी में प्रवेश किया तब साथ में लिया हुआ पानी पी लेने से समाप्त हो गया । अतः प्यास से वे सब पीडित हो गए। पास ही गंगा नदी में निर्मल जल बह रहा था । किन्तु उनकी अदत्त (बिना दिये हुए ) ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा थी । कोई भी जल का दाता उन्हें वहाँ न मिला। वे तृषा से अत्यन्त व्याकुल हुए । उनके प्राण संकट में पड़ गए। अन्त में सभी मरणासन्न साधकों ने अर्हन्त भगवान् को ‘नमस्कार' करके गंगा नदी के किनारे ही यावज्जीवन अनशन ( संथारा) ग्रहण कर लिया । काल करके वे सभी ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुए। इस प्रकार वे सभी परलोक के आराधक हुए। अम्बडपरिव्राजक को दो भवों के अनन्तर मोक्ष प्राप्ति की प्ररूपणा
२२. बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति ४ – एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसते ?
एवं जहा उववातिए अम्मडवत्तव्वया जाव दढप्पतिण्णे अंतं काहिति ।
[२२ प्र.] भगवन् ! बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५३
२. वही, अ. वृत्ति पत्र ६५३
३. (क) औपपातिकसूत्र, सू. ३९, पत्र ९४ - ९५ ( आगमोदय समिति )
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६५३