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________________ चौदहवाँ शतक : उद्देशक- ७ ४०९ से तुल्य है किन्तु एक गुण काले वर्ण वाला पुद्गल, एक गुण काले वर्ण से अतिरिक्त दूसरे पुद्गलों के साथ भाव से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दस गुण काले पुद्गल तक कहना चाहिए । इसी प्रकार तुल्य संख्यातगुण काला पुद्गल तुल्य संख्यातगुण काले पुद्गल के साथ, तुल्य असंख्यातगुण काला पुद्गल तुल्य असंख्यातगुण काले पुद्गल के साथ और तुल्य अनन्तगुण काला पुद्गल, तुल्य अनन्तगुण काले पुद्गल के साथ भाव से तुल्य है । जिस प्रकार काला वर्ण कहा, उसी प्रकार नीले, लाल, पीले और श्वेत वर्ण के विषय में भी कहना चाहिए। इस प्रकर सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध और इसी प्रकार तिक्त यावत् मधुर रस तथा कर्कश यावत् रूक्ष स्पर्श वा पुद्गल के विषय में भावतुल्य का कथन करना चाहिए। औदयिक भाव औदयिक भाव के साथ (भाव - ) तुल्य है, किन्तु वह औदयिक भाव के सिवाय अन्य भावों के साथ भावतः तुल्य नहीं है । इसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भाव के विषय में भी कहना चाहिए। सान्निपातिक भाव, सान्निपातिक भाव के साथ भाव से तुल्य है। इसी कारण से, हे गौतम !' भावतुल्य' भावतुल्य कहलाता है । विवेचन—भावतुल्यता के विविध पहलू — प्रस्तुत में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के सर्वप्रकारों में से प्रत्येक प्रकार के साथ उसी प्रकार की भावतुल्यता है। जैसे—एक गुण काले वर्ण वाले पुद्गल के साथ एक गुण काले वर्ण वाला पुद्गल भाव से तुल्य है । इसी प्रकार एकगुण नीले पुद्गल की एकगुण नीले पुद्गल के साथ भावतुल्यता है । इसी प्रकार रस, गन्ध एवं स्पर्श के विषय में भी समझ लेना चाहिए । तुल्लसंखेज्जगुणकालए इत्यादि का आशय – यहाँ जो 'तुल्य' शब्द ग्रहण किया है यह संख्यात के संख्यात भेद होने से संख्यातमात्र के साथ तुल्यता बताने हेतु नहीं है, अपितु समान संख्यारूप अर्थ के प्रतिपादन के लिए है । इसी प्रकार असंख्यात और अनन्त के विषय में भी समझ लेना चाहिए। औदयिक आदि पांच भावों की अपने-अपने भाव के साथ सामान्यतः भावतुल्यता है, किन्तु अन्य भावों के साथ नहीं । औदयिक आदि भावों के लक्षण औदयिक — कर्मों के उदय से निष्पन्न जीव का परिणाम औदयिकभाव है, अथवा कर्मों के उदय से निष्पन्न नारकत्वादि- पर्यायविशेष औदयिक भाव है । 1 औपशमिक-उदयप्राप्त कर्म का क्षय और उदय में न आए हुए कर्म का अमुक काल तक रुकना औपशमिक भाव है, अथवा कर्मों के उपशम से होने वाला जीव का परिणाम औपशमिक भाव कहलाता है । यथा— औपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र । क्षायिक — कर्मों का क्षय अभाव ही क्षायिक है । अथवा कर्मों के क्षय से होने वाला जीव का परिणाम क्षायिक भाव । यथा— केवलज्ञानादि । क्षायोपशमिक—–— उदयप्राप्त कर्म के क्षय के साथ विपाकोदय को रोकना क्षयोपशमिक भाव है, अथवा कर्मों के क्षय तथा उपशम से होने वाला जीव का परिणाम क्षायोपशमिक भाव कहलाता है । यथा— मतिज्ञानादि । क्षायोपशमिक भाव में विपाकवेदन नहीं होता, प्रदेशवेदन होता है, जबकि औपशमिक भाव में दोनों प्रकार के वेदन नहीं होते । यही क्षायोपशमिक भाव और औपशमिक भाव में अन्तर है। जीव का अनादिकाल से जो स्वाभाविक परिणाम है, वह पारिणामिक १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ६७६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४९
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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