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________________ ४१० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भाव है। औदयिक आदि दो-तीन भावों के संयोग से उत्पन्न होने वाला भाव सान्निपातिक भाव है। संस्थानतुल्यनिरूपण १०. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ ‘संठाणतुल्लए, संठाणतुल्लए ?' गोयमा ! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, परिमंडले संठाणे परिमंडलसंठाणवतिरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले। एवं वट्टे तंसे चउरंसे आयए। समचउरंससंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउरंससंठाणवतिरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले। एवं परिमंडले वि। एवं जाव हुंडे। से तेणढेणं जाव संठाणतुल्लए, संठाणतुल्लए। [१० प्र.] भगवन् ! 'संस्थानतुल्य' को संस्थानतुल्य क्यों कहा जाता है? [१० उ.] गौतम ! परिमण्डल-संस्थान, अन्य परिमण्डल-संस्थान के साथ संस्थानतुल्य है, किन्तु दूसरे संस्थानों के साथ संस्थानतुल्य नहीं है। इसी प्रकार वृत्त-संस्थान, त्र्यस्र-संस्थान, चतुरस्रसंस्थान एवं आयतसंस्थान के विषय में भी कहना चाहिए। एक समचतुरस्रसंस्थान अन्य समचतुरस्रसंस्थान के साथ संस्थान-तुल्य है, परन्तु समचतुरस्र के अतिरिक्त दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान-तुल्य नहीं है। इसी प्रकार न्यग्रोध-परिमण्डल यावत् हुण्डकसंस्थान तक कहना चाहिए। इसी कारण से, हे गौतम! 'संस्थान-तुल्य' संस्थान-तुल्य कहलाता है। विवेचन संस्थान : परिभाषा, प्रकार एवं भेद-प्रभेद-आकृतिविशेष को संस्थान कहते हैं। वह दो प्रकार का है—अजीवसंस्थान और जीवसंस्थान । अजीवसंस्थान के ५ भेद हैं—परिमण्डल, वृत्त, त्र्यस्त्र, चतुरस्र और आयत । (१) परिमण्डल-जो चूड़ी के समान गोल हो। इसके दो भेद हैं—घन और प्रतर। (२) वृत्त—जो कुम्हार के चाक के समान बाहर से गोल और भीतर से पोलान-रहित हो। इसके दो भेद हैंघन और प्रतर। इसके भी दो-दो भेद होते हैं । समसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त और विषमसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त। (३) व्यस्त्र-त्रिकोणाकार । (४) चतुरस्त्र-चौकोर ।(५) आयात—जो दण्ड के समान लम्बा हो। इसके तीन भेद हैं— श्रेण्यायत, प्रतरायत और घनायत। इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं—समसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त और विषमसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त। जीवसंस्थान के छह भेद, लक्षण-संस्थान नामकर्म के उदय से सम्पाद्य जीवों की आकृतिविशेष को जीव-संस्थान कहते हैं। इसके ६ भेद ये हैं—(१) समचतुरस्र, (२) न्यग्रोध-परिमण्डल, (३) सादिसंस्थान, (४) कुब्जकसंस्थान, (५) वामनसंस्थान और (६) हुण्डकसंस्थान। (१) समचतुरस्त्र-सम-समान, चतुरस्र—चारों कोण। पल्हथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों। अर्थात्—आसन और कपाल का अन्तर, दोनों घुटनों का अन्तर, बाएँ कन्धे और दाहिने १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४९ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ६४९ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५, पृ. २३३४ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा.५, पृ. २३३५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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